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________________ सप्तम अध्याय /185 तदनन्तर आगे के श्लोकों में भी नामौचित्य मनमोहक है । यथा"चालितवती स्थलेऽत्रामुक गुणगतवाचि तु सुनेत्रा । कौतुकि तमेव वलयं साङ्गुष्ठानामिकोपयोगमयम् ॥ नयतिस्म स जन्यजनो भगीरथो जह्न कन्यकां सुयशाः । सुकु लाद् भूभृत इतरं कुलीनमपि भूभृतं सुरसाम् ॥100 यहाँ भी सुलोचना के वलय संचालन से 'सांगुष्ठानामिकोपयोगम्' इत्यादि से उक्त नृपति का तिरस्कार व्यंजित हो रहा है । अत: उपयुक्त नामौचित्य का यह उदाहरण है। 26. आशीर्वचनौचित्य : क्षेमेन्द्र ने 39वीं कारिका से इस औचित्य के विषय में बतलाया है . कि जिस प्रकार पूर्णार्थ प्रदाता राजादि के लिये विद्वानों द्वारा प्रदत्त आशीर्वाद अभ्युदयकारक होता है, वैसे ही काव्य में आशीर्वचना काव्य के अभ्युदय कारक होते हैं । जयोदय महाकाव्य में बहुस्थलों में आशीर्वचनौचित्य का प्रयोग किया गया है - "अनङ्गसौख्याय सदङ्गगम्या योच्चैस्तना नममुखीति रम्या । विभ्राजते स्माविकृतस्वरूपानुमाननीया महिषीति भूयात् ॥'102 यहाँ कहा गया है कि सुन्दर अङ्गों से युक्त होने के कारण गमन योग्य उच्चस्तन मण्डल वाली एवं नम्रमुखी होने से रम्य तथा अविकृत स्वरूप के कारण अनुमान से सम्मान के योग्य काम सौख्य के लिये यह सुन्दरी सुलोचना दीव्यमान है । अविकृत स्वरूप होने के कारण से राजमहिषी (राजरानी) हो ऐसा 'भूयात' आशिर्लिङ्ग के द्वारा व्यक्त किया गया है अतएव आशीर्वचनौचित्य अपने रूप में सन्निविष्ट है । जयोदय महाकाव्य के सर्ग बाइसवें में भी यह औचित्य दर्शनीय है। यथा "गद्यचिन्तामणिर्बाला धर्मशर्माधिराट परम् । यशस्तिलक भावेनालंकरोतु भुवस्तलम् ॥103 यहाँ सुन्दरी सुलोचना के विषय में कहा गया है कि यह बाला प्रशंसनीय चिन्तामणि है । धर्मरूप कल्याण में तत्पर रहने वाले यशरूपी तिलक के साथ इस भूतल को अलङ्कत करें । अलङ्करोतु' यह आशीर्वादार्थ लोट् का प्रयोग कर आशीर्वचनौचित्य व्यक्त किया गया इसी प्रकार सर्ग 25 में भी यह औचित्य अपना आधिपत्य बनाये हुए है"जन्मातङ्कजरादितः समयभृविंतामथागाच्छु भां यत्नोद्वाह्य मिदन्तु राज्यभरकं स्थाने समाने धुवम् ।
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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