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________________ षष्ठ अध्याय / 157 आचारित मार्ग में तत्पर हुआ । राजा होते हुए भी तपस्वी बना । समदृष्टि रखते हुए भी इन्द्रियों के विषय सम्बन्धी व्यापार का निवारक बना । इसी प्रकार आगे के श्लोकों में भी महाकवि ने वर्णन किया है जो देखने योग्य है 44 " हे रयैवेरयाव्याप्तं भोगिनामधिनायक : परिमुक्तवान् अहीनः सर्पवत्तावत्कञ्चुकं अर्थात् यह विलासियों का स्वामी था । परन्तु जिस प्रकार सर्पों का राजा सर्पों की भाँति अपने ही कंचुक का त्याग करता है, वैसे ही जयकुमार भी धन सम्पत्ति से व्याप्त नहीं रहा अपितु उससे मुक्त बना सम्पूर्ण संयम में तत्पर होकर पंचमुष्टि भिक्षाटन पर ही अपने भाग्य को अवलम्बित किया तथा पापों को उखाड़ फेंका । इस प्रकार पूरे महाकाव्य से शान्त रस ध्वनि अभिव्यक्त होती है । अन्य रस अङ्ग होकर आये हुए हैं, जिसका विवेचन पूर्व में किया जा चुका है । ध्यातव्य है कि इस महाकाव्य में ध्वनि का दिग्दर्शन ही मेरा अभीष्ट रहा है । समग्र ध्वनियों का अन्वेषण नहीं । अतः मेरा ध्वनि विवेचन अति विस्तार को नहीं प्राप्त कर सका। *** 1 फुट नोट का. प्र. सू. 88/68 पू. 1. (अ) माधुयजः प्रसादाख्यास्त्रयस्ते न पुनर्दश । (ब) श्लेषः समाधिरौदार्यः प्रसदा इति ये पुनः || गुणाश्चिरन्तनैरूक्ता ओजस्यन्तर्भवति ते । माधुर्य व्यञ्जकत्वं यदसमासस्य दर्शितम् । पृथक्पदत्वं माधुर्यं तेनैवाङ्गीकृतं पुनः । अर्थव्यक्तेः प्रसादाख्य गुणेनैव परिग्रहः । अर्थव्यक्तिः पदानां हि झटित्यर्थसमर्पणम् । ग्राम्यदुः श्रवतात्यागात्कान्तिश्च सुकुमारता ॥ क्वचिद्दोषस्तु समता मार्गाभेद स्वरूपिणी । अन्यथोक्तगुणेष्वस्या अन्तः पातो यथायथम् । ओजः प्रसादो माधुर्यं सौकुमार्यमुदारता । तदभावस्य दोषत्वात्स्वीकृता अर्थगा गुणाः ॥ अर्थव्यक्तिः स्वभावोक्त्यलङ्कारेण तथा पुनः । रसध्वनि गुणीभूत व्यङ्गयानां कान्तिनामक। श्लेषो विचित्रतामात्रमदोषः समता परम् । न गुणत्वं समाधेश्च तेन नार्थगुणाः पृथक् । सा. द. 8 / 9, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16 197 2. वामन - का. सू. वृ. 3/2/6 3. सा. द. 8 /2 पू. 4. आह्लादकत्व माधुर्य शृङ्गारे द्रुतिकारणम् । 5. संभोगे करुणे विप्रलम्भे शान्तेऽधिकं क्रमात् ॥ सा. द. 8 /2 6. मुनि वर्गान्त्यवर्णेन युक्ताष्टठडढान्विना । रणौ लघु च तद्वयक्तौ वर्णाः कारणतां गताः॥ अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा मधुरा रचना तथा । सा. द. 8/3, 4 पू. का. प्र. सू. 89/68 उत्त. 7. ज. म. 10/111 9. ओजश्चित्तस्य विस्ताररूपं दीप्तत्वमुच्यते ॥ 8. ज. म. 10/119 -
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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