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________________ 68/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन संचारी या व्यभिचारी भाव कहते हैं । ये भाव तैंतीस प्रकार के साहित्यदर्पण में अनुपम ढंग से निर्दिष्ट हैं।। स्थायी भाव भी अन्य रसो में नियम न होने के कारण कभी-कभी व्यभिचारी भाव कहलाते हैं" । स्थायी भाव मन के उस भाव को कहते हैं जो विरुद्ध या अविरुद्ध भावों से तिरोहित न हो सकें । काव्यादि में सतत उनके तारतम्य की गतिविधि बनी रहती है. जिससे ब्रह्मानन्द सहोदर रस का आस्वाद निष्पन्न होता है । प्रत्येक रसों के नियम स्थायी भाव हैं। जैसे - शृङ्गार का रति, हास्य का हाँस, करुण का शोक, रौद्र का क्रोध, वीर का उत्साह, भयानक का भय, बीभत्स का जुगुप्सा, अद्भुत का विष्पय और शान्त रस का स्थायी निर्वेद यद्यपि करुण, बीभत्स, भयानक आदि रसों में क्रमशः शोक, जुगुप्सा, भय आदि स्थायी होते हैं एवं किसी प्रिय व्यक्ति का मरण, घृणित, दुर्गन्ध पूर्ण अस्थि पंजरादि का दर्शन, व्याघ्र सर्पादि भयानक प्राणी का दर्शन क्रमशः इन रसों में विभावादि होते हैं जो दुःख के कारण हैं परन्तु इतने मात्र से इन रसों में दुःख नहीं होता क्योंकि यहाँ विभाव, अनुभाव, संचारी आदि भाव अलौकिक कारण होते हैं । यदि करुण रस प्रधान 'रामायण' दुःखदायक होता तो कोई उसके सुनने-पढ़ने या तद्विषयक अभिनय को देखने में प्रवृत्त नहीं होता क्योंकि कोई भी व्यक्ति दु:ख के लिये किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता । अन्ततः इन अलौकिक विभावादि से के समान सुख ही उपलब्ध होता है । पं. राज जगन्नाथ ने भी रसगंगाधर में रस-विषयक प्राचीन मतों का सम्यक् विवेचन किया है । जिनमें कतिपय के लिये कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है । आचार्य अभिनवगुप्त एवं मम्मट के रस विवेचन से पं. राज में अन्तर दृष्टि मात्र का है । पं. राज जगन्नाथ 'रसो वै सः' इत्यादि श्रुति के आधार पर रति आदि स्थायी भाव से अविच्छिन्न चैतन्य को रस मानते हैं परन्तु उक्त दोनों मतों में चैतन्य विशिष्ट स्थायी भाव को ही रस कहा गया है । केवल विशेषण-विशेष्य भाव मात्र का ही इस विषय में अन्तर है । __रस संख्या की दृष्टि से भी आचार्यों में कुछ मतभेद हैं । नाट्य-शास्त्र प्रणेता भरत मुनि ने शान्त रस का लक्षण एवं विभावादि का प्रतिपादन नहीं किया है उसमें क्या कारण हो सकता है ? यह विचारणीय है । परन्तु यह कहा जा सकता है कि अनादिकाल से उत्पन्न राग, द्वेष, ईर्ष्या, क्रोधादि का नाश होना सम्भव नहीं है अतएव शान्त रस का स्थायीभाव निर्वेद या शम का होना भी सम्भव न होने से शान्त रस नहीं कहा गया है। अभिनवगुप्त के अनुयायी काव्य प्रकाशकार मम्मट ने पहले आठ रसों को कहकर एवं उनके स्थायी भावों को दिखाकर निर्वेद प्रधान नवम शान्त रस भी है, ऐसा कहा है। इन सबके अतिरिक्त आचार्य रूद्रट ने प्रेयान् नाम का एक और भी रस स्वीकार किया
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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