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________________ (29) प्राणियों को कुपात्र समझता और उनको दान देना कुपात्र दान और व्यसन कुशीलादि के समान एकान्त पाप का कार्य समझता तो वह धार्मिक होकर ऐसा पाप का कार्य क्यों करता? राजा प्रदेशी ने दानशाला खोलने की इच्छा केशीश्रमण मुनि के समक्ष ही प्रकट की थी। परन्तु केशीश्रमण मुनि ने उसको दानशाला खोलने का निषेध नहीं किया। यदि साधु के सिवाय समस्त प्राणी कुपात्र होते और उनको दान देना एकान्त पाप होता तो उक्त मुनि, राजा प्रदेशी को दानशाला खोलने का निषेध कर देते। साधु जन एकान्त पाप के कार्य का तो निषेध करते ही हैं। फिर केशीश्रमण मुनि ने निषेध क्यों नहीं किया? अतः “साधु से इतर सभी कुपात्र हैं और उनको दान आदि देना तथा उनका विनय करना एकान्त पाप हैं" यह जैन शास्त्र की मान्यता नहीं है। इसके सिवाय साक्षात् मल्लिनाथ भगवान के पिता कुम्भ राजा ने मल्लिनाथ भगवान के दीक्षा ग्रहण करते समय दानशाला खोली थी। यदि तेरह पन्थियों की तरह उनकी मान्यता होती और वे साधु से भिन्न सभी को कुपात्र मानते होते तो कुपात्रों को दान देने के लिये वे दानशाला क्यों बनाते? सबसे अधिक विचार करने की बात यह है कि-साक्षात् तीर्थंकर देव विरतिभाव आ जाने पर 1 कोटि 8 लाख स्वर्णमुद्रा का एक वर्ष पर्यन्त नित्य दान करते हैं। यदि वे साधु से भिन्न सभी को कुपात्र मानते होते तो कुपात्रों को दान देने का पाप क्यों करते? अतः इन ऊपर लिखी हुई शास्त्रीय बातों से यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि साधु से इतर समस्त प्राणियों को
SR No.006168
Book TitleSupatra Kupatra Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherAadinath Jain S M Sangh
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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