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________________ काव्यमण्डन : मण्डन नमोऽनन्तरूपाय मूर्च्छन्महिम्ने सुधाधामवद्विस्फुरदीप्तिभूम्ने । जगत्पापविध्वंसकृद्भरिनाम्ने लसत्कण्ठलोठस्सुमन्दारदाम्ने । ८.१४ अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक, रूपक, यथासंख्य, सहोक्ति, स्वभावोक्ति, अर्थान्तरन्यास, विरोध आदि अलंकारों का प्रयोग काव्य में हुआ है। मंडन उपमा का मर्मज्ञ है । काव्यमण्डन में अनेक हृदयग्राही उपमाएँ दष्टिगोचर होती हैं। वर्ण्य विषय के स्पष्टीकरण के लिये कवि ने मूर्त तथा अमूर्त दोनों प्रकार के उपमानों को ग्रहण किया है । निम्नोक्त पद्य में याज्ञसेनी की तुलना अमूर्त कुण्डलिनी शक्ति से तथा पांच पाण्डवों की पांच ज्ञानेन्द्रियों से की गयी है। तैः पंचभिर्भत भिरायताक्षी सा याज्ञसेनी सुतरां विरेजे। बुद्धीन्द्रियैर्वमणि विस्फुरद्भिः समन्विता कुण्डलिनीव शक्तिः ॥ १३.४४. काव्यमण्डन में अनूठी स्वभावोक्तियां मिलती हैं, जो कवि की निरीक्षण शक्ति तथा व्यापक अनुभव की प्रतीक हैं । इन स्वभावोक्तियों में कवि का सच्चा कवित्व प्रकट हुआ है । हेमन्त में, ऊँचे मचान पर बैठ कर तथा गोपिये (भिण्डिमाल) से पक्षियों को उड़ाकर खेतों की रखवाली करने वाले किसानों का यह वर्णन कितना स्वाभाविक है। इस शब्दचित्र में ग्राम्य जीवन का उक्त दृश्य साकार हो उठा है। यत्र क्षेत्रसुरक्षणक्षणमभूत्तुंगाट्टमारुह्य त त्सत्कौतूहलवन्कृषीवलकुलं कोलाहलव्याकुलम् । उद्भ्राम्यद्भुजभिण्डिमालविगलच्चण्डोपलप्रस्फुट त्सूत्रप्रान्तपरित्रसत्खगगणव्यग्राग्रहस्तद्वयम् ॥ ३.१४. कृष्ण, कृष्णा तथा कुरुनन्दन का क्रमशः 'स्नेहार्द्रभावा', 'घनरागपूर्णा' तथा 'रोषारुणा' से सम्बन्ध होने के कारण, निम्नोक्त पद्य में यथासंख्य अलंकार है। कृष्णेऽधिकृष्णं कुरुनन्दने च पाण्डोः सुतानां सममापतन्ती। स्नेहा भावा घनरागपूर्णा रोषारुणा च प्रबभूव दृष्टिः ॥ १२.६ काव्यमण्डन में अनेकत्र विविध अलंकारों का संकर दिखाई देता है। प्रस्तुत पद्य में व्यतिरेक तथा यथासंख्य मिल कर संकर की सृष्टि करते हैं । धनुष्मतामाजिमुखेऽग्रगत्वान्निजेच्छया मृत्युवशंवदत्वात् । जितेन्द्रियत्वाच्च जिगाय योऽपि रामं यमं काममवार्यवीर्यम् ॥ १.६. मण्डन ने भावाभिव्यक्ति को समर्थ बनाने के लिये काव्य में कतिपय अन्य अलंकारों का भी प्रयोग किया है। छन्दयोजना छन्दों के प्रयोग में मण्डन ने पूर्ण स्वछन्दता से काम लिया है। प्रत्येक सर्ग में एक छंद की प्रधानता का शास्त्रीय बन्धन उसे सदैव मान्य नहीं है। इसीलिये
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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