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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य शिवताण्डव आदि स्तोत्रों के अतिशय प्रभाव के द्योतक हैं । मण्डन ने निस्सन्देह यहाँ अपने भाषा-पाण्डित्य से पाठक को अभिभूत करने का प्रयास किया है। एक उदाहरण पर्याप्त होगा। वश्याऽवश्यायभूभदुहितुरहितुराषाविलासाविलासा ऽनीहाहानीहारहारप्रकरकरकोज्जभकाशाभकाशा । स्तुत्याऽस्तु त्यागशीला शुभसितमसितभ्राजमानाजमाना नित्यानित्यानभक्त्या तनुरतनुरसौभाग्यसौभाग्यदेशी ॥ ८.६१ इसके विपरीत काव्यमण्डन की भाषा में कहीं-कहीं हृदयग्राही सहजता तथा सुमधुर नादसौन्दर्य विद्यमान है । अनुप्रास तथा यमक की कुशल योजना से वह और वृद्धिगत हो गया है । द्वारिकाधीश के वर्णन में भाषा का यह गुण दृष्टिगम्य होता है। अजरममरमाचं वेदवाचामवेद्यं सगुणभगुणमेकं नैकरूपं महिष्ठम् । अणुतरमविदूरं चातिदूरं दुरन्त दुरितचथमदन्तं योगिचित्ते वसन्तम् ॥५.४ काव्यमण्डन की भाषा में सरलता तथा प्रौढ़ता का सम्मिश्रण है। वह सर्वत्र उदात्त है, किन्तु कहीं-कहीं कवि ने उसे अधिक अलंकृत कर दिया है, जा तत्कालीन काव्य-परिपाटी को देखते हुए अक्षम्य नहीं है । अलंकारविधान काव्यमण्डन में अधिक अलंकारों का प्रयोग नहीं हुआ है । यमक के अतिरिक्त अन्य किसी अलंकार को काव्य में बलात् ठूसने का प्रयत्न कवि ने नहीं किया है। समूचे दूसरे सर्ग में तथा अन्यत्र भी यमक की जानबूझ कर विस्तृत योजना की गयी है जिससे काव्य में, इन स्थलों पर, क्लिष्टता आ गयी है । ऋतुवर्णन में यमक के प्रयोग की परम्परा कालिदास के रघुवंश तक जाती है। शंकर की स्तुति में यमक को श्रद्धालु हृदय की निश्छल अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना हास्यास्पद है। इसी प्रसंग के यमक का एक विकट उदाहरण देखिये लोलोल्लोलौघनृत्यज्जलजलजविभ्रामरालीमराली, मालामालानगंगाविलसितलसितोत्कंप्रवाहं प्रवाहम् । ८.६५ यमक के अतिरिक्त अनुप्रास कवि का प्रिय अलंकार है। इसे भी काव्य में व्यापक स्थान मिला है। अनुप्रास की मधुरता तथा झंकृति काव्य में मनोरम सौन्दर्य को जन्म देती है । भगवान् शंकर की स्तुति के इस पद्य में अन्त्यानुप्रास की विवेक पूर्ण योजना की गयी है।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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