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________________ काव्यमण्डन : मण्डन हृदय, पापात्मा, दुर्बुद्धि, राज्यलोलुप तथा विषयासक्त हैं । पाण्डवों के प्रति उनकी ईर्ष्या इस सीमा तक पहुंच गई है कि वे उन्हें जीवित भी नहीं देख सकते । पाण्डवों को जतुगृह में जीवित जलाकर मारने का उनका षड्यन्त्र इसी ईर्ष्या तथा द्वेष से प्रसूत है । पाण्डवों की ओर उनकी यह घृणा काव्य में पग-पग पर प्रकट हुई है। स्वयम्वर में राधायन्त्र को बींधने वाले ब्राह्मणकुमार की वास्तविकता को जान कर कौरवराज दुर्योधन द्रुपद को उस विपन्न ब्राह्मण को कन्या न देने के लिए भड़काता है । इस कूटनीति में असफल होकर वह पाण्डवों से युद्ध ठान लेता है, किन्तु अर्जुन का बाहुबल उसका दर्प चूर कर देता है । द्रौपदी काव्य की नायिका है । वह परम सुन्दरी है। उसके स्वयम्वर-मण्डप में पदार्पण करते ही आगन्तुक राजा कामाकुल हो जाते हैं तथा उसे प्राप्त करने को अधीर हो उठते हैं । यद्यपि उसे अर्जुन ने ही जीता था किन्तु विधि की विडम्बना है कि उसे पांचों भाइयों की पत्नी बनना पड़ता है। श्रीकृष्ण के अनुसार यह धर्म से अनुमोदित है। इनके अतिरिक्त काव्य में एक और पात्र है, जो बहुधा पर्दे के पीछे से ही सूत्रसंचालन करता है । वह है कृष्ण वासुदेव । वे पाण्डवों के विश्वस्त सखा तथा सच्चे मार्गदर्शक हैं । अर्जुन के साथ तो उनकी मैत्री इतनी प्रगाढ़ है कि काव्य में उसे 'कृष्णसखा' इस साभिप्राय विशेषण से सम्बोधित किया गया है। श्रीकृष्ण त्रिकालज्ञ हैं । भूत, वर्तमान तथा भविष्य उन्हें हस्तामलकवत् स्पष्ट हैं। वस्तुतः वे ईश्वर हैं। गाढे समय में पाण्डव नियमित रूप से उन्हें याद करते हैं और वे भक्तवत्सल उन्हें सदैव विपत्तियों से उबारते हैं। वास्तव में, पाण्डव सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते कभी भी उन्हें नहीं भूलते। उन्हीं की कृपा से पाण्डव समस्त कठिनाइयों पर विजय पाते हैं। वे पाण्डवों के जीवन में इस प्रकार घुले-मिले हुए हैं कि उनके बिना पाण्डवों के अस्तित्व की कल्पना करना भी सम्भव नहीं है । तीर्थयात्रा आरम्भ करते समय पाण्डव सर्वप्रथम द्वारिका जाकर उनके दर्शन करते हैं। द्रौपदी के स्वयम्वर में जहाँ अन्य उपस्थित राजा, यहाँ तक कि कौरव भी, ब्राह्मणकुमार को पहचानने में भूल करते हैं, वे अपने मित्रों को तुरन्त पहचान लेते हैं और गुप्त रूप से अर्जुन की प्रणति स्वीकार करते हैं । वे ही द्रुपदराज को उन द्विजवेशधारी युवकों की वास्तविकता बता कर उसका संदेह दूर करते हैं। श्रीकृष्ण भक्तवत्सल हैं। ३४. वही, १३.३७ ३५. भूतं भवच्च किल भावि च वेद्मि सर्वम् । वही, १३.३८, सर्वज्ञोऽसि जगन्नाथ । वही, १०.३२ ३६. हंसि त्वमेव सकलानहितव्रजान्नः । वही, १३.३५
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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