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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य भीम मूर्तिमान् दर्प तथा शौर्य है । वह दुर्द्धर्ष योद्धा तथा अद्वितीय ओजस्वी है । वह भ्रातृस्नेह के कारण धर्मराज के तीर्थाटन के परामर्श को मान तो लेता है किन्तु उसकी थोथी आदर्शवादिता पर वह अपने क्रोध तथा हंसी को नहीं रोक सकता । वह अपनी क्रोधाग्नि से दुष्ट कौरवों को भस्म करने को तैयार है, किन्तु उसे आशंका है कि धर्मराज की दया का मेघ उसे तुरन्त शान्त कर देगा " । भीम के भुजबल, शौर्य तथा प्रचण्डता का कोई ओर-छोर नहीं है । वही हर विपत्ति में अपने भाइयों की रक्षा करता है । लाक्षागृह में, मृत्युमुख में फंसे अपने भाइयों और माता को सकुशल निकालने का श्रेय काव्य में उसे ही दिया गया है । किम्मर के चंगुल से उन्हें छुड़ाना केवल भीम जैसे अप्रतिहत तथा साधन-सम्पन्न व्यक्ति के लिए ही सम्भव था । वह किम्मर तथा बकासुर को क्षण भर में धराशायी कर देता है । पाण्डवों के लिए किम्मर के वध का कितना महत्त्व था, यह इसी से स्पष्ट है कि अर्जुन जैसा धनुर्धर भी उसे 'किम्मरान्तक' कहकर सम्बोधित करता है तथा गाढे समय में द्रौपदी की सुरक्षा का भार उसे सौंपता है" । ૬૪ अर्जुन अद्वितीय धनुर्धारी है । वह कृष्ण का परम मित्र तथा प्रतापी योद्धा है । वह अकेला ही प्रतिद्वन्द्वियों को पराजित करने में समर्थ है जैसे अकेला सिंह हाथियों को पछाड़ देता है और सूर्य नक्षत्रों का तेज नष्ट कर देता है" । उसने अपने भुजबल और रणकौशल से द्रुपद को भी बन्दी बना लिया था । उसके गुणों और वीरता से अभिभूत होकर द्रुपदराज ने अपनी रूपवती पुत्री उसे देने का पहले ही निश्चय कर लिया था । पंचालनरेश की यह कामना कि अर्जुन लाक्षागृह से किसी प्रकार बच कर स्वयम्वर में आ जाए, उसके सद्गुणों एवं शौर्य की स्वीकृति है । अर्जुन सौन्दर्य सम्पन्न युवक है । स्वयम्वर मण्डप में लक्ष्य बींधने को उद्यत ब्राह्मण कुमार को अर्जुन समझने मात्र से द्रौपदी में काम का उद्रेक हो जाता है । अर्जुन अचूक निशानची है। दिग्दिगन्तों से आए हुए राजाओं में केवल वही घूमती शफरी के प्रतिबिम्ब को देख कर उसकी आँख बींधने में सफल होता है। कौरवों तथा उनके पक्षपोषकों की संगठित सेनाएँ भी उनके सामने नहीं टिक सकीं । कौरवों का चरित्र ईर्ष्या तथा घृणा से कलंकित है । समष्टिरूप में वे क्रूर.. २६. वही, ४.३६. ३०. लाक्षागृहे प्रबलधूमहुताशदीप्ते संरक्षिता हि भवता बत भीमसेन ! वही, ७.१७.. ३१. किम्मरान्तक रक्ष राजतनयां यावद्विषः शास्म्यहम् । वही, १२.७१ I ३२. वही, १०.३४ ३३. मया दत्ताऽनवद्यांगी द्रौपदीयं सुमध्यमा । पार्थाय सत्यया वाचा पूर्व विक्रमशालिने ।। वही, १०.३३
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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