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________________ ५४ जैन संस्कृत महाकाव्य में कथावस्तु एक पग आगे बढ़ती है, किन्तु उसे तुरन्त चार सर्गों के सेतुबन्ध से जूझना पड़ता है । नवें सर्ग से कथानक मन्थर गति से आगे बढ़ने लगता है पर वह पुनः स्वयम्वर तथा युद्ध के व्यूह में उलझ जाता है । वस्तुतः मण्डन वर्ण्य विषय की अपेक्षा वर्णन-शैली को महत्त्व देने वाली तत्कालीन काव्य-परम्परा का बन्दी है। उससे मुक्त होना शायद सम्भव भी नहीं था। सचाई तो यह है कि कालिदासोत्तर महाकाव्य कथाप्रवाह की दृष्टि से बहुत कच्चे हैं । मण्डन के लिए कथानक एक सूक्ष्म तंतु है जिसके चारों ओर उसने अपना शिल्पकौशल प्रदर्शित करने के लिए वर्णनों का जाल बुन दिया है। काव्यमण्डन का आधारस्रोत ___ जैन मतावलम्बी कवि मण्डन ने महाभारत के एक प्रकरण को काव्य का विषय बना कर तथा उसे उसके मूल परिवेश में निरूपित करके निस्संदेह साहस का काम किया है। काव्यमण्डन के इतिवृत्त का आधार महाभारत का आदिपर्व (१.१४०-५०, १५६-६३, १६२-६८, २०५) है। कितैरवध की घटना वनपर्व में वर्णित है । मण्डन ने महाभारत के इतिवृत्त को अपने काव्य के कलेवर तथा सीमाओं के अनुसार कांट-छांट कर ग्रहण किया है, यद्यपि इस प्रक्रिया में कुछ सार्थक तथ्यों तथा घटनाओं की उपेक्षा हो गयी है। लाक्षागृह के निर्माता पुरोचन तथा वारणावत का उल्लेख न करना इसी कोटि की चूक है। काव्य में पुरोचन तथा छह अन्य स्थानापन्न व्यक्तियों के जलने के वर्णन का भी अभाव है," हालांकि कौरवों को पाण्डवकुमारों के नष्ट होने का विश्वास दिलाने के लिए यह अनिवार्य था। यह बात भिन्न है कि काव्य में कौरवों को फिर भी अपने षड्यंत्र की सफलता पर पूरा विश्वास है । पाण्डवों का तीर्थाटन तथा विभिन्न तीर्थों का क्रमबद्ध वर्णन महाभारत में उपलब्ध नहीं है । आदि पर्व में, इस प्रसंग में, केवल अर्जुन के तीर्थविहार का संक्षिप्त वर्णन है । महाभारत की भाँति काव्यमण्डन में भी पाण्डव एकचक्रा नगरी में विपन्न ब्राह्मण के घर में निवास करते हैं और कुन्ती ब्राह्मण के इकलौते पुत्र को बकासुर से बचाने के लिए अपने पांच पुत्रों में से एक की बलि देने का प्रस्ताव १३. आयुधागारमादीप्य दग्ध्वा चैव पुरोचनम् । षट् प्राणिनो निधायेह द्रवामोऽनभिलक्षिताः ॥ महाभारत (मूल, गीता प्रेस), १.१४७.४ १४. पंचैव बग्धाः किल पाण्डवास्ते लाक्षालये कर्मवशावश्यम् । प्रत्यक्षमस्माभिरपीक्षितानि ज्वालार्धवग्धानि वपूंषि तेषाम् ॥ काव्यमण्डन, १२.३५१५. महाभारत (पूर्वोक्त), १.२१२-२१६
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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