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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य स्वर्णतन्तुसमव्यूतशिरोवेष्टनधारकः । चीनदेशसमुद्भूतवासोरत्नांगिकाधरः ॥ २.३० चरित्रचित्रण प्रद्युम्नचरित चरित्रों की विशाल चित्रवीथी है, जिसमें कवि की तूलिका ने अनेक मनोरम चित्र अंकित किये हैं । किन्तु उसकी कला की विभूति कृष्ण के चरित को मिली है, जो नायक न होते हुए भी काव्य के सबसे अधिक प्रभावशाली पात्र हैं । प्रद्युम्नचरित में अनेक स्त्री-पुरुष पात्र हैं। यद्यपि उन्हें पौराणिक परिवेश में चित्रित किया गया है, और उन पर अलौकिकता का घना आवरण है तथापि उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसी रेखाएं हैं, जो पाठक को बरबम अपनी ओर आकृष्ट करती हैं। प्रद्युम्न प्रद्युम्न काव्य का नायक है। यद्यपि उसका व्यक्तित्व अपने पिता कृष्ण के सर्वातिशायी व्यक्तित्व के भार से दब गया है किन्तु उसके चरित्र का अपना आकर्षण है। वह अभिजात तथा सच्चरित्र है और उसे रुक्मिणी जैसी शुद्धशीला माता का पुत्र होने का गौरव प्राप्त है (७.४०१) । जन्म लेते ही उसे माता-पिता के वात्सल्य से वंचित होना पड़ता है। पूर्व-वैर के कारण देवाधम धूमकेतु उसे चुरा कर वैताढ्य पर्वत पर असहाय छोड़ देता है। विद्याधर कालसंवर की पत्नी उसका पालन-पोषण करती है । सौलह वर्ष तक माता से वियुक्त रह कर भी उसकी मातृवत्सलता अक्षत है । नारद से अपनी माता का संकट जानकर वह तत्काल द्वारिका को प्रस्थान करता है और माता को केश कटवाने के अपमान से बचाने के लिये वह, विवाह के मध्य ही, उदधि को हर लाता है ताकि भानु का विवाह प्रमाणित न हो सके । प्रद्युम्न सौन्दर्य-सम्पन्न तथा चतुर युवक है। उसके मोहक सौन्दर्य तथा असह्य तेज के कारण उसका प्रद्युम्न जैसा सार्थक नाम रखा गया । यौवन में उसके लावण्य में इतना निखार आ जाता है कि उसकी पोषिका कनकमाला उसके समागम के लिये तड़प उठती है और उसे प्रणयपूर्ति का निर्लज्ज निमन्त्रण देती है, जिसे वह घृणापूर्वक अस्वीकार कर देता है । उसके लिये कनकमाला माता के समान पूज्य तथा पवित्र है (माता भवसि पालनात्-७.४०७) । इस निकृष्ट प्रकरण में अडिग रहकर वह चतुरता से, कनकमाला से, दो विद्याएँ हथिया लेता है और उसे विद्यादात्री आचार्या का पद देकर उसके व्यवहार की हीनता का बोध कराने में समर्थ होता है। उसके व्यक्तित्व में शौर्य तथा व्यावहारिक बुद्धि का अद्भुत समन्वय है । विद्याध र कालसंवर जब उसे अभिषिक्त करने का निश्चय करता है, तो उसके पुत्र उस कण्टक को (प्रद्युम्न को) रास्ते से हटाने के लिये उसे नष्ट करने का षड्यन्त्र रचते हैं । वे उसे एक के बाद एक ऐसे गहन संकटों में डालते हैं, जिनमें साधारण व्यक्ति का विनाश अवश्यम्भावी था परन्तु वह अपनी वीरता तथा सूझबूझ से उनकी
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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