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________________ ४७६ जैन संस्कृत महाकाव्य रसवत्ता की तीव्रता में वृद्धि करते हैं । कृष्ण के भावी जामाता तन्तुवाय वीर की वीरता का यह आत्मवर्णन हास्यरस से परिपूर्ण है। उसने गिरगिट को पत्थर से मार कर, रथचक्र द्वारा निर्मित गड्ढे में पांव से पानी रोक कर और घड़े के अन्दर बैठी मक्खियों को हाथ से पकड़ कर वीरता का कीर्तिमान स्थापित किया है। बदरीस्थी ग्रावखण्डः कृकलासो मया हतः । १४.१५४ तोयं मया वहद्रुद्धं मार्गे स्यन्दननिर्मिते । तत्क्षणाद् वामपादेन बलीत्यस्मि जनार्दन ॥ १४.१५५ वस्त्रपालकलश्यन्तः शतशो मक्षिका मया । १४.१५६ प्रविष्टा हस्तदानेन सर्वा अपि धृताः क्षणात् ॥१४.१५७ रत्नचन्द्र की करुणा में अन्य जैन कवियों के करुणरस से कोई नवीनता नहीं है । चीत्कार और क्रन्दन को ही करुणा की मार्मिकता का पर्याय मान लिया गया है । जरासन्ध से युद्ध करते समय बलराम के मूछित होने पर यादवों के विलाप में तथा कृष्ण की अचानक मृत्यु पर बलराम की किंकर्तव्यविमूढ़ता में करुणा की टीस तथा कातरता है। परन्तु उसकी यथेष्ट व्यंजना मरणासन्न कृष्ण और जरासुत के आलाप में हुई है। भ्रातृहत्या के जिस जघन्य पाप से बचने के लिये जरासुत ने वनवास लिया था, आज वह अनजाने उस पाप का भागी बन गया है। आत्मघात से उसका प्रतीकार सम्भव था पर उसका सुख भी जरासुत के भाग्य में नहीं है। कथं तदैव न मृतो हा किमेतदुपस्थितम् । वसुधे विवरं देहि मां गृहाणातिपातिनम् ॥ १६.१५८ हा वेधः किमकार्षीस्त्वं मद्धस्तात् कारयन् वधम् । नरोत्तमस्य मे भ्रातुः किं विराद्धं मया तव ॥ १६.१६० कमहं नरकं गन्ता पापं कृत्वेदृशं महत् । मरणं श्रेय एवास्तु जीवितेनाधुना कृतम् ॥ १६.१६१ प्रकृतिचित्रण प्रद्युम्नचरित के विराट कलेवर में प्रकृतिचित्रण को जो स्थान मिला है, वह नगण्य है। वस्तुतः प्राकृतिक सौन्दर्य को चित्रित करने में कवि ने रुचि नहीं ली है। उसका प्रकृति-वर्णन कुछ पद्यों तक ही सीमित है, जिनमें वसन्त का तो नामोल्लेख करके सन्तोष कर लिया गया है। बारहवें सर्ग में ग्रीष्म का स्वाभाविक चित्रण अपेक्षाकृत अधिक रोचक है । ग्रीष्म ऋतु में लोग सूक्ष्म वस्त्रों, पंखों और पुष्प-मालाओं से उसकी प्रचण्डता को परास्त करने का प्रयत्न करते हैं। इसका सहज वर्णन निम्नोक्त पद्यों में किया गया है। निःश्वासलहरीकम्प्रे वाससी श्वेतनिर्मले। युवानः पर्यधुस्तत्र परं वीडैकहेतवे ॥ १२.६६
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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