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________________ ४७० जैन संस्कृत महाकाव्य शोकाकुल हो जाते हैं । नारद से उन्हें ज्ञात हुआ कि प्रद्युम्न के प्रति पूर्व-वैर के कारण देवाधम धूमकेतु, रुक्मिणी के रूप में आकर, उसे ले गया है तथा भूख-प्यास से मरने के लिये वैताढच पर्वत पर असहाय छोड़ दिया है। मेघकट के स्वामी कालसंवर की पत्नी कनकमाला उसका पुत्रवत् पालन कर रही है । वह रुक्मिणी को सौलह वर्ष पश्चात् मिलेगा। छठे सर्ग में रुक्मिणी के पूर्व-भवों तथा उस कुकर्म का वर्णन है जिसके फलस्वरूप उसे पुत्रवियोग की पीड़ा मिली है। सातवें सर्ग में विद्याधर कालसंवर के पुत्र छलबल से प्रद्युम्न को मारने के लिये अनेक षड्यन्त्र रचते हैं, किन्तु वह अपनी व्यावहारिक प्रज्ञा तथा अनुपम शौर्य से समस्त विपत्तियों को जीतकर अतुल समृद्धि प्राप्त करता है । कनकमाला युवा प्रद्युम्न के मोहक रूप पर रीझ कर उसे पथभ्रष्ट करने का प्रयास करती है पर वह उसके प्रणय पूर्ति के निन्द्य प्रस्ताव को दृढतापूर्वक ठुकरा देता है। आठवें सर्ग में, पूर्वनिश्चित शर्त के अनुसार अपनी माता को केश देने के अपमान से बचाने के लिये, प्रद्युम्न दुर्योधन की पुत्री उदधि को हरकर द्वारिका में आता है जिससे सत्यभामा के पुत्र भानु का विवाह सम्भव न हो सके । नवें सर्ग में देवता के वरदान से जाम्बवती को प्रद्युम्न तुल्य पुत्र (शाम्ब) प्राप्त होता है। कालान्तर में प्रद्युम्न उसके साथ चाण्डाल का भेस बन कर कुण्डिनपुर जाता है और कौतुकपूर्ण ढंग से, रुक्मी की पुत्री वैदर्भी को, पत्नी के रूप में प्राप्त करता है । दसवें सर्ग में मगधराज जरासंध, जामाता कंस के वध से क्रुद्ध होकर द्वारिका पर आक्रमण करता है परन्तु घनघोर युद्ध में कृष्ण, सेना-सहित उसे विध्वस्त कर देते हैं। ग्यारहवें सर्ग में बलराम के पौत्र सागरदत्त और कमल मेला का विवाह, अनिरुद्ध द्वारा उषा का हरण और इस प्रसंग में कृष्ण द्वारा बाण का वध वर्णित है । बारहवें सर्ग में नेमिचरित का निरूपण किया गया है। तेरहवें सर्ग में नारद की दुष्प्रेरणा से, धातकी-खण्ड की अमरकंका नगरी का शासक पद्मनाभ द्रौपदी को हर ले जाता है । युद्ध में पाण्डवों के असफल होने पर कृष्ण अमरकंका को ध्वस्त करके द्रौपदी को पुनः प्राप्त करते हैं। चौदहवें सर्ग में देवकी के पुत्र गजसुकुमाल, सागरदत्त, कृष्ण की छह पुत्रियों तथा एक पुत्र ढण्ढण और अन्य यादवों के प्रव्रज्या ग्रहण करने का वर्णन है । पन्द्रहवें सर्ग में राजीमती के प्रति अन तक व्यवहार का पश्चात्ताप करने के लिये रथनेमि तप करते हैं जिससे उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति होती है । सौलहवें सर्ग में द्वारिका-दहन तथा कृष्ण-मरण की भावी विपत्ति से भीत होकर प्रद्यम्न तथा शाम्ब प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं। पूर्व अपमान से पीड़ित मुनि द्वैपायन, कृष्ण तथा बलराम के अतिरिक्त समूची द्वारिका को भस्मसात् कर देते हैं। भवितव्यता को अटल मानकर कृष्ण अपने अग्रज के साथ, द्वारिका छोड़कर चल पड़ते हैं। वन में जराकुमार का बाण लगने से कृष्ण के प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं। सतरहवें सर्ग में प्राणप्रिय अनुज की मृत्यु से शोकाकुल बलराम, परलोकसिद्धि की
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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