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________________ प्रद्युम्नचरित : रत्नचन्द्रगणि ४६९ को उपाध्याय पद प्रदान किया गया था। रत्नचन्द्र को काव्यरचना में प्रवृत्त करने का श्रेय इन्हीं शान्तिचन्द्र को है। प्रद्युम्नचरित की रचना सम्वत् १६७४ (सन् १६१७) में, विजयादशमी को सूरत में सम्पूर्ण हुई थी। उसी दिन कवि की एक अन्य कृति अध्यात्मकल्पद्रुमवृत्ति भी पूरी हुई थी। यह उक्त वृत्ति की प्रशस्ति से स्पष्ट है । रत्नचन्द्रगणि प्रसिद्ध टीकाकार भी थे। उन्होंने अपनी टीकाओं से अनेक जैनाजैन ग्रन्थों का मर्म प्रकाशित किया है । अध्यात्मकल्पद्रुम के अतिरिक्त भक्तामर स्तोत्र, कल्याणमन्दिरस्तोत्र, देवप्रभोस्तव, धर्मस्तव, ऋषभस्तोत्र, वीरस्तव, कृपारसकोश, नैषधमहाकाव्य तथा रघुवंश पर भी उनकी टीकाएँ उपलब्ध हैं। कथानक प्रद्युम्न चरित सतरह सर्गों का विशालकाय महाकाव्य है, जिसमें पूरे ३५६६ पद्य हैं । प्रथम सर्ग में श्रीकृष्ण की नवनिर्मित राजधानी द्वारिका में देवर्षि नारद के आगमन तथा नत्यभामा द्वारा उनकी अवमानना करने का वर्णन है। द्वितीय सर्ग में नारद अपमान का बदला लेने के लिये सत्यभामा को सपत्नी के संकट में डालने का निश्चय करते हैं। वे विदर्भदेश की राजकुमारी रुक्मिणी को महाराज कृष्ण की अग्रमहिषी बनने का वरदान देते हैं। राजकुमार रुक्मी बहिन का विवाह चेदि के शासक शिशुपाल से निश्चित कर चुका था। तृतीय सर्ग में कृष्ण चित्रगता रुक्मिणी की नयनाभिराम छवि देखकर कामविह्वल हो जाते हैं। उधर शिशुपाल लग्नपत्रिका भेजकर विवाह निश्चित कर देता है। रुक्मिणी एक दूत के द्वारा श्रीकृष्ण से उसे चेदिराज से बचाने की प्रार्थना करती है। चतुर्थ सर्ग में कृष्ण, पूर्वनिश्चित योजना के अनुसार, रुक्मिणी का अपहरण करते हैं तथा द्वारिका के पार्श्ववर्ती उद्यान में उससे पाणिग्रहण करते हैं । नवोढा के प्रेम में डूब कर उन्हें सत्यभामा की सुध तक नहीं रहती। पंचम सर्ग में ऋषि अतिमुक्तक के वरदान से रुक्मिणी को विष्णुतुल्य पुत्र प्राप्त होता है। अमित तेज के कारण शिशु का नाम प्रद्युम्न रखा गया। प्रद्युम्न सहसा तिरोहित हो जाता है । कृष्ण तथा रुक्मिणी, पुत्र के एकाएक गायब होने से ६. इति श्रीदिल्लीदेशे फतेपुरस्थैः पातसाहिश्रीअकब्बरः श्रीगुरुदर्शनार्थसमाहूत भट्टारक श्री ५ श्रीहीरविजयसूरीश्वरैः सह विहारकृताम्, स्वयंकृतकृपारसकोशग्रन्थश्रावणरञ्जितपातसाहिश्रीअकब्बराणाम् .. ..........श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रस्य प्रमेयरत्नमंजूषानामबृहद्वत्तिकृताम् पातसाहिश्रीअकब्बरदापितोपाध्यायपदानाम् । पुष्पिका, स तदशसर्ग ७. प्रशस्ति, १५ तथा अन्तिम पंक्ति : संवत् १६७४ वर्षे विजयादशमीदिवसे सुरत बन्दरे . . . .. प्रद्युम्नचरितं संपूर्णम् । ८. युगमुनिरसशशिवर्षे मासीषे विजयदशमिकादिवसे । शुक्लेऽध्यात्मसारद्रुमवृत्तिश्चक्रे मया ललिता॥
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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