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________________ जैनकुमारसम्भव : जयशेखरसूरि प्रकृति का उदारता-पूर्वक मानवीकरण किया है, जिससे सामान्य दृश्य भी अत्यन्त रोचक तथा कवित्वपूर्ण बन गये हैं। दसवें सर्ग का प्रभातवर्णन, कवित्व तथा प्रकृतिचित्रण की दृष्टि से कदाचित् जैनकुमारसम्भव का सर्वोत्तम अंश है। छह पद्यों के इस संक्षिप्त वर्णन में कवि ने अपनी प्रतिभा की तूलिका से प्रातःकालीन समग्र वातावरण उजागर कर दिया है। इसमें जयशेखर ने बहुधा समासोक्ति के द्वारा प्रकृति की नाना चेष्टाओं के अभिराम चित्र अंकित किये हैं। चन्द्रमा ने रात भर अपनी प्रिया के साथ रमण किया है। इस स्वच्छन्द कामकेलि से उसकी कान्ति म्लान हो गयी है। प्रतिद्वन्द्वी सूर्य के भय से वह अपना समूचा वैभव तथा परिवार छोड़ कर नंगा भाग गया है। उसकी निष्कामता को देखकर पुंश्चली की तरह यामिनी ने उसे निर्दयता से ठुकरा दिया है। सेनानी के रणभूमि छोड़ देने पर सैनिकों की क्या बिसात ? जब उनका अधिपति चन्द्रमा ही भाग गया है, तो तारे सूर्य के तेज के सामने कैसे टिक सकते थे ? वे सब एक-एक करके बुझ गये हैं। समासोक्ति तथा अर्थान्तरन्यास की संसृष्टि ने चन्द्रमा तथा तारों के अस्त होने की दैनिक घटना को कविकल्पना से तरलित कर दिया है। लक्ष्मी तपाम्बरमथात्मपरिच्छदं च मुञ्चन्तमागमितयोगमिवास्तकामम् । दृष्ट्वेशमल्पचिमुज्झति कामिनीव तं यामिनी प्रसरमम्बुरुहाकि पश्य ॥ १०.८२ अवशमनशभीतः शीतद्युतिः स निरम्बरः खरतरकरे ध्वस्यद्ध्वान्ते रवावुदयोन्मुखे । विरलविरलास्तज्जायन्ते नमोऽध्वनि तारकाः परिवढढीकाराभावे बले हि कियबलम् ॥१०.८३ प्रभात वर्णन के अन्तिम पद्य में कवि ने कमल को मन्त्रसाधक कामी का रूप दिया है । जैसे कामी अपने मनोरथ की पूर्ति के लिए नाना मन्त्र-तन्त्र की साधना करता है, कमल ने भी गहरे पानी में खड़ा होकर सारी रात, आकर्षण-मन्त्र का जाप किया है । प्रातः काल उसने सूर्य की किरणों के स्पर्श से स्फूति पा कर प्रतिनायक चन्द्रमा की लक्ष्मी का अपहरण कर लिया है और उसे अपनी 'अंकशय्या" (पत्रशय्या) पर लेटा कर आनन्द लूट रहा है। "चन्द्रमा के अस्त होने पर कमल अपने पूर्ण वैभव तथा ठाट से खिल उठता है," यह प्रतिदिन की सुविज्ञात घटना कमल पर चेतना का आरोप करने से कितनी आकर्षक तथा प्रभावशाली बन सकती है, निम्नोक्त पद्य उसका भव्य निदर्शन है। गम्भीराम्भःस्थितमथ जपन्मुद्रितास्यं निशाया मन्तर्गुञ्जन्मधुकरमिषान्नूनमाकृष्टिमन्त्रम् ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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