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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य अव्यक्तमुक्तं स्खलवंघ्रियानं निःकारणं हास्यमवस्त्रमंगम् । जनस्य यदोषतयाभिधेयं तच्छंशवे यस्य बभूव भूषा ॥ १.२७ दूरात् समाहूय हृदोपपीडं माद्यन्मुवा मोलितनेत्रपत्रः। अथांगजं स्नेहविमोहितात्मा यं तात तातेति जगाद नाभिः ॥ १.२८ जैनकुमारसम्भव में हास्य के अवसर अधिक नहीं हैं। पौर सुन्दरियों के सम्भ्रम-चित्रण के अन्तर्गत, निम्नोक्त पद्य में, हास्य रस की रोचक अभिव्यक्ति हुई है। नवविवाहित ऋषभ को देखने की लालसा से 'मूढदृष्टि' कोई स्त्री, अपने रोते शिशु को छोड़कर बिल्ली का बच्चा गोद में उठाकर दौड़ आयी। उसे देखकर सारी बारात हंस पड़ी, किन्तु उसे इसका आभास नहीं हुआ। उसकी इस अधीरता-जन्य चेष्टा में हास्य की मधुर रेखा है । तूर्णिमूढदगपास्य रुदन्तं पोतमोतुमधिरोप्य कटोरे। कापि धावितवती नहि जज्ञे हस्यमानापि जन्यजनः स्वयम् ॥ ५.४१ पहले कहा गया है, शृंगारचित्रण का अद्भुत अवसर खोकर भी जयशेखर शांत रस की तीव्र निष्पत्ति करने में सफल नहीं हुए। जैनकुमारसम्भव में ऋषभदेव की अनासक्ति तथा विरक्ति के चित्रण में शान्तरस की क्षीण अभिव्यक्ति हुई है। काव्यनायक को गार्हस्थ्य जीवन में प्रवृत्त करने के लिए इन्द्र की उक्तियों में ऋषभ का निर्वेद मुखर है। वयस्यनंगस्य वयस्यभूते भूतेश रूपेऽनुपमस्वरूपे । पींदिरायां कृतमन्दिरायां को नाम कामे विमनास्स्ववन्यः ॥ ३.२४ क्रुद्ध भैंसे के चित्रण में भयानक रस की प्रभावशाली व्यंजना हुई है (४.६)। वस्तुतः जयशेखर ने विविध मनोभावों के विश्लेषण तथा सरस चित्रण का श्लाध्य प्रयत्न किया है। प्रकृति चित्रण काव्यशास्त्रियों का विधान, जिसके अन्तर्गत उन्होंने वर्ण्य विषयों की बृहत् सूचियाँ दी हैं, काव्य में प्रकृतिचित्रण की महत्ता तथा उपयोगिता की स्वीकृति है । जैनकुमारसम्भव के वर्णन-बाहुल्य में प्राकृतिक दृश्यों के चित्रण को विशाल फलक मिला है । जयशेखर की प्रकृति मानव से निरपेक्ष जड़ प्रकृति नहीं है। उसमें मानवीय भावनाओं का स्पन्दन है तथा वह मानव की तरह ही नाना क्रियाकलापों में रत है। उसका आधार समासोक्ति अलंकार है जिसका मर्म वर्ण्य विषय पर अप्रस्तुत के व्यवहार, कार्य आदि आरोपित करने में निहित है । जयशेखर के प्रकृतिवर्णन में समासोक्ति के प्रचुर प्रयोग का यही रहस्य है। प्रभात, सूर्योदय, मध्याह्न, रात्रि, चन्द्रोदय तथा ऋतुओं के वर्णन में जयशेखर ने समासोक्ति के माध्यम से
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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