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________________ ४६३ जम्बूस्वामिचरित : राजमल्ल विरल प्रयोग किया गया है । राजमल्ल ने आत्माभिव्यक्ति के लिये जिस अलंकार का सबसे अधिक आश्रय लिया है, वह उपमा है । प्रकृति पर आधारित उपमानों के प्रति उसका विशेष पक्षपात है । ये कवि के प्रकृति प्रेम के सर्वोत्तम परिचायक हैं । पुत्र के तापसव्रत ग्रहण करने का निश्चय सुनकर माता जिनमती इस प्रकार कांप उठी जैसे प्रभंजन के वेग से हिमदग्धा पद्मिनी । चकम् श्रुतमात्रेण माता जिनमती सती ।। पवनेरिता वेगाद् हिमदग्धेव पद्मिनी ।। ६.५२ यह गूढोपमा भी कम रोचक नहीं है। भोजन के बाद खारा जल पीने से जैसे भूख भड़क उठती है उसी प्रकार अकबर की तलवार ने शत्रु का मांस भक्षण करके ज्यों ही समुद्र के जल का पान किया, वह तीनों लोकों को लीलने को आतुर हो गयी । शिते कृपाणेऽस्य विदारितारित: ( 2 ) पलाशनात्कुर्वति पानमन्धितः । ततोऽधिकं क्षारता बुभुक्षिते जगत्त्रयं त्रासमगाद नेहसः ।। १.२३ कवि-कल्पना का यही कौशल उत्प्रेक्षा की योजना में दृष्टिगत होता है । ऋतुराज वसन्त तथा महाराज श्रेणिक के वर्णन में तो कवि ने अपनी कल्पना का कोश लुटा दिया है | श्रेणिक की गम्भीर नाभि ऐसी लगती थी मानो नारी की दृष्टि रूपी हथिनी को फांसने के लिये काम द्वारा निर्मित जलपूर्ण खाई हो ( २.२२३) । जम्बूस्वामी तथा विद्याधर व्योमगति के वार्त्तालाप के अन्तर्गत प्रस्तुत पद्य में सामान्य मृगशिशु तथा क्रुद्ध केसरी से क्रमश: विशेष रत्नचूल विद्याधर और जम्बूकुमार व्यंग्य हैं, अतः यहाँ अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है । तावद्धत्ते स्वसद्मस्थश्चापल्यं मृगशावकः । यावच्चाभिमुखं गर्जन् क्रुद्धो नायाति केसरी ।। ७.६६ अकबर की दिग्विजय के इस वर्णन में अतिशयोक्ति का प्रयोग किया गया है । उसकी सेना के भार से पृथ्वी ही ऊबड़-खाबड़ नहीं हुई, पर्वत भी चूर-चूर होकर ढह गये । न केवलं दिग्विजयेऽस्य भूभृतां सहस्रखण्डैरिह भावितं भृशम् । भुवोऽपि निम्नोन्नतमानयानया चलच्चमूभारभरातिमात्रतः ॥ १.१६ भारतवर्ष का वर्णन कवि ने परिसंख्या के द्वारा किया है । प्रस्तुत पद्य में मदविकार, दण्डपारुष्य तथा जलसंग्रह आदि का अन्य पदार्थों से व्यवच्छेद दिखाया गया है । यत्र भंगस्तरंगेषु गजेषु मदविक्रिया । दण्डपारुष्यमब्जेषु सरःसु जलसंग्रहः ।। २.२०५ जम्बू की बालकेलियों के वर्णन के इस पद्य में ' सारखं' की भिन्नार्थ में और 'तारव' की अर्थहीन आवृत्ति हुई है । यह यमक है । सारखं जलमासाद्य सारवं जलकूजितैः । तारयंत्रकैः क्रीडन् जलास्फालकृतारवैः ।। ५.१५५
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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