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________________ ४६२ जैन संस्कृत महाकाव्य अवसर प्रदान भी नहीं करता । जम्बूस्वामिचरित में आदि से अन्त तक प्रसादपूर्ण सरल भाषा का प्रयोग किया गया है, जिससे उस उद्देश्य की पूर्ति हो सके जो इसकी रचना का प्रेरक है । सुबोधता की वेदी पर कवि ने भाषा की शुद्धता की बलि देने में भी संकोच नहीं किया है। काव्य में प्रायः उस प्रकार के सभी अपाणिनीय प्रयोगों को उदारतापूर्वक स्थान दिया गया है, जो पौराणिक काव्यों की भाषा की विशेषता हैं । जम्बूस्वामिचरित के व्याकरण-विरुद्ध रूपों का सम्बन्ध सन्धि, धातु-रूप, शब्दरूप, कारक, प्रत्यय, समास आदि शब्दशास्त्र के सभी अंगों से है । ततोवाच (तत उवाच), सोपायं (स उपायं), निर्धनंतीव (निर्धन्वतीव), अभिनन्दत् (अभ्यनन्दत्), वर्धनम् (जो नम्) वदे (वदामि), स्मरती (स्मरन्ती), सुवर्द्धन्तौ (सुवर्द्धमानौ), दशित (द्रष्टुम्), विद्यति (विद्यमाने), चलमानः (चलद्भिः ), नाभिराज्ञः (नाभिराजस्य), व्याकुलीभूतचेतसः (व्याकुलीभूतचेताः), उल्लेखनीय हैं। अस्ति स्म चाद्यापि विभाति (१.६), अभास्त स्म (२.२२५), ध्यानमेकायं ध्यायनिह (३.१२४), पतिर्भावी भविता कोऽत्र (७.१७), प्रतस्थेऽस्मिन् (८.१०२ प्रस्थितेऽस्मिन्) आदि विचित्र प्रयोग भी काव्य में दुर्लभ नहीं हैं। इस प्रकार की भाषा से महाकाव्य की गरिमा को आघात पहुंचता है। पर राजमल्ल शुद्ध अथवा समर्थ भाषा के प्रयोग में असमर्थ हो, ऐसी बात नहीं । काव्य को सर्वगम्य बनाने के उत्साह के कारण वह भाषा के परिष्कार की ओर अधिक ध्यान नहीं दे सका। जम्बूस्वामिचरित में भाषात्मक वैविध्य का अभाव है। काव्य में अधिकतर एकरूप भाषा प्रयुक्त की गयी है। परन्तु, जैसा रसचित्रण के प्रकरण से स्पष्ट है, कवि मनोभावों के अनुकूल वातावरण का निर्माण करने के लिये यथोचित भाषा का प्रयोग कर सकता है। रौद्र, करुण तथा शृंगार रसों की भिन्न-भिन्न पदावली इस कथन की साक्षी है। काव्य में प्रसंगवश नीतिपरक उक्तियों का समावेश किया गया है, जिनकी भाषा सरलतम है। जन-साधारण में ग्राह्य होने के लिये उनमें सुबोधता अपेक्षित ही है। तावन्मूलगुणाः सर्वे सन्ति श्रेयोविधायिनः । यावद्ध्वंसी न रोषाग्निर्भस्मसात्कुरुते क्षणात् ॥ ७.७२ गौरवं तावदेवास्तु प्राणिनः कनकाद्रिवत् । यावन्न भाषते दैन्याद् देहीति द्वौ दुरक्षरौ ॥ ७.७३ राजमल्ल की भाषा सरल है किन्तु वह कान्तिहीन नहीं है। वह कवि के उद्देश्य की पूर्ति के लिये सर्वथा उपयुक्त है। अलंकार-विधान जम्बूस्वामिचरित में अलंकार भावव्यंजना के अवयव हैं। शब्दालंकारों के प्रति कवि की अधिक रुचि नहीं है यद्यपि काव्य में अर्थालंकारों के साथ उनका भी
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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