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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य इन स्वरूप विधायक तत्त्वों के समान जम्बूस्वामिचरित में महाकाव्य की स्थूल रूढियों का भी पालन किया गया है । इसका प्रारम्भ चार पद्यों के मंगलाचरण से हुआ है, जिनमें क्रमश: महावीर स्वामी, सिद्धों, मुनित्रय तथा वाग्देवी सरस्वती वन्दना की गयी है । जम्बूस्वामिचरित की विशेषता यह है कि इसके अन्य बारह सर्ग भी क्रमशः दो-दो तीर्थंकरों की स्तुति से शुरु होते हैं । इस प्रकार, प्रत्येक सर्ग में मंगलाचरण के व्याज से काव्य में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति का समावेश हो गया है । इसमें महाकाव्योचित नगर, ऋतु, उद्यान, दूतप्रेषण, युद्ध आदि के वर्णन -भी यथास्थान पाये जाते हैं जो इसके पौराणिक इतिवृत्त को रोचक बनाते हुए युगजीवन के कतिपय पक्षों को बिम्बित करते हैं । कवि के लक्ष्य के अनुरूप इसकी भाषा सुबोध तथा प्रसादपूर्ण है । वह अशुद्धियों से भी मुक्त नहीं है । अन्य पौराणिक काव्यों की भाँति इसमें अधिकतर अनुष्टुप् का प्रयोग किया गया है । काव्य तथा सर्गों का नामकरण शास्त्र के अनुकूल है, यद्यपि कवि ने सर्ग के लिये 'पर्व' तथा 'अध्याय' का प्रयोग मुक्तता से किया है । इस प्रकार जम्बूस्वामिचरित में महाकाव्य के समूचे प्रमुख तत्व विद्यमान हैं । अतः इस 'पुराण' को महाकाव्य मानने में आपत्ति नहीं हो सकती । जम्बूस्वामिचरित की पौराणिकता ૪૪૪ जम्बूस्वामिचरित पौराणिक शैली का महाकाव्य है । इसमें वे सभी प्रमुख प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं, जो पौराणिक काव्यों का स्वरूप निर्धारित करती हैं। जम्बूस्वामिचरित का आरम्भ ठेठ पौराणिक रीति से हुआ है। प्रथम सर्ग के अतिरिक्त द्वितीय सर्ग में जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी काल, उनके छह अरों, प्रत्येक अर में मनुष्यों की आयु, आकार, प्रकृति, योग आदि के वर्णन पुराणों पर आधारित तथा उनके अनुगामी हैं | कालचक्र के इस प्रवाह तथा स्वरूप का जम्बूस्वामी के मूल इतिवृत्त से कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु कवि ने, अपनी कृति को पौराणिक रूप देने की व्यग्रता के कारण इस पुराण - सुलभ सामग्री का काव्य में समाहार किया है । इसकी रचना का प्रेरक बिन्दु कवि का धर्मोत्साह है। समूचा काव्य निर्ग्रन्थ धर्म की महिमा का दीपस्तम्भ है । प्रत्येक सर्ग के अन्त में कवि ने निरपवाद रूप से स्वधर्म के गौरव का प्रतिपादन किया है । धर्मान्नास्ति परः सुहृद् भवभृतां धर्मस्य मूलं दया । तस्मिन् श्रीजिनधर्मशर्मनिरतैर्धर्मे मतिर्धार्यताम् ॥ १२.१५० जैन सिद्धान्तपद्धति कुमतों को खण्डित करने के लिए वज्रसार है । दीक्षा को - भवबन्धन को उच्छिन्न तथा कर्म का उन्मूलन करने वाला अमोघ मन्त्र माना गया है । धर्म प्रचार के इसी उद्देश्य से तृतीय सर्ग में गणधर गौतम की देशना की योजना ४. जम्बूस्वामिपुराणस्य शुश्रूषा हृदि वर्तते। वही, १.१२७
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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