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________________ २३. जम्बूस्वामिचरित : राजमल्ल आलोच्य युग के पौराणिक महाकाव्यों में, अन्तिम केवली जम्बूस्वामी के संवेगजनक जीवनवृत्त पर आधारित पण्डित राजमल्ल का जम्बूस्वामिचरित' महत्त्वपूर्ण रचना है। विषय-साम्य होने पर भी ब्रह्मजिनदास के जम्बूस्वामिचरित तथा प्रस्तुत काव्य में, कवित्व तथा कथावस्तु के संयोजन की दृष्टि से पर्याप्त अन्तर है। राजमल्ल का कथानक अधिक शिथिल तथा विषपान्तरों से आच्छादित है परन्तु ब्रह्मजिन दास की अपेक्षा उनकी काव्य-प्रतिभा निश्चय ही अधिक समर्थ तथा श्लाघनीय है। जम्बूस्वामिचरित का महाकाव्य पौराणिक शैली में रचित जम्बूस्वामिचरित में महाकाव्य के मान्य लक्षणों का तत्परता से अनुवर्तन किया गया है, यह कवि की उक्त काव्यविधा के प्रति निष्ठा का प्रतीक है । राजमल्ल के काव्य का विषय, जम्बूस्वामी का चरित, जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों में सुप्रसिद्ध तथा समादृत कथा है। इसका मुख्य आधार जैन पुराण हैं तथा राजमल्ल के अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं के कवियों ने इस कथा को पल्लवित करने में योग दिया है। जम्बूकुमार सही अर्थ में धीरप्रशान्त नायक है, जो समस्त भोगों से निलिप्त है तथा रूपसी नवोढाओं के समूचे प्रलोभनों को विषवत् त्याग कर संयमव्रत ग्रहण करता है । रसवत्ता जम्बूस्वामिचरित की उल्लेखनीय विशेषता है। वैराग्यप्रधान रचना होने के नाते इसमें शान्तरस की प्रधानता है । काव्य की रसात्मकता को तीव्र बनाने के लिये राजमल्ल ने इसमें शृंगार वीर, बीभत्स, रौद्र आदि प्राय: सभी रसों की इस प्रकार निष्पत्ति की है कि जम्बूस्वामिचरित वस्तुत : आस्वाद्य बन गया है। जम्बूस्वामिचरित की रचना धर्म के उदात्त उद्देश्य से प्रेरित है। कवि के विचार में धर्म लौकिक सम्पदाओं तथा पारलौकिक अभ्युदय का मूलाधार है। १. सम्पादक : जगदीशचन्द्र शास्त्री, माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, संख्या ३५, __ बम्बई, सम्वत् १९६३. २. पं. सागरदत्त, भुवनकोति, पद्मसुन्दर, सकलहर्ष, मानसिंह (दिगम्बर), हेमचन्द्र, जयशेखर उल्लेखनीय हैं। ३. धर्मामृतं च पानीयं निर्विकारपदप्रदम् । जम्बूस्वामिचरित, ३.८६ धर्मात्सुखं कुलं शीलं धर्मात्सर्वा हि सम्पदः । वही, ४.१७२
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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