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________________ पार्श्वनाथचरित : हेमविजयगणि ४३६ अनुष्टुप् सर्वोत्तम छन्द है । प्रस्तुत काव्य में इसका प्रयोग इसके प्रचारवादी उद्देश्य के अनुरूप है। समाजचित्रण पार्श्वनाथचरित को 'जीवन की व्याख्या अथवा आलोचना' तो नहीं कहा जा सकता किन्तु इसमें युगचेतना का भव्य चित्र समाहित है। हेमविजय ने अपनी संवेदनशीलता से तत्कालीन समाज के कतिपय रीति-रिवाजों, लोकाचारों, मान्यताओं, शिक्षा, स्वास्थ्य, अपराध एवं दण्ड, मनोरंजन के साधनों आदि का यथातथ्य वर्णन किया है जिसमें भारतीय समाज-व्यवस्था के तुलनात्मक अध्ययन के लिये उपयोगी सामग्री निहित है। पार्श्वनाथ के जन्मोत्सव के प्रसंग में, उस समय प्रचलित कुछ लोकरीतियों का निरूपण किया गया है। इनमें से कुछ अवश्य ही राज़गृह अथवा धनाढ्य वर्ग तक सीमित थीं। शासकवर्ग पुत्रजन्म के उपलक्ष्य में राज्य के समस्त बन्दियों की मुक्ति तथा करों की समाप्ति से आन्तरिक हर्ष की अभिव्यक्ति करता था। नगर के चौराहों में कुंकुम के मांगलिक थापे लगाये जाते थे, मोतियों से स्वस्तिकचिह्न पूरे जाते थे, पण्यांगनाओं का अविराम नृत्य होता था। वे मण्डलाकार हल्लीसक नृत्य करती थीं और पुरुष रास गाते थे । वेणु, वीणा, मृदंग आदि वाद्यों की मधुर ध्वनि से नगर रंगभूमि का रूप धारण कर लेता था । जहाँ इन रीतियों का आयोजन केवल श्रीमन्तों द्वारा सम्भव था, कतिपय अन्य आचार समाज के सभी वर्गों में प्रचलित थे। शिशुजन्म के प्रथम दिन स्नात्रोत्सव किया जाता था, तत्पश्चात् स्थितिपतिका । तीसरे दिन शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा का दर्शन कराया जाता था । छठे दिन रात्रिजागरण करने की प्रथा थी। सधवाएँ सज-धज कर रात भर मांगलिक गीत गाती थीं। ग्यारहवें दिन अशुचिकर्मोत्सव सम्पन्न होता था। बारहवें दिन शिशु का नामकरण संस्कार किया जाता था। इन आचारों की परम्परा में नामकरण सबसे महत्त्वपूर्ण आयोजन था। पिता उस समय उदारतापूर्वक दान देता था तथा सम्बन्धियों को भोज दिया जाता था। अश्वसेन ने बेशकीमती वस्त्रों के साथ रत्नों, मणियों तथा सोने का कोश लुटा दिया था। हेमविजय के समकालीन समाज में ज्ञाननिष्ठा का सर्वगत महत्त्व था। 'आचार्यदेवो भव' की वैदिक परम्परा के अनुसार गुरु देववत् पूज्य था। छात्र द्वारा उपाध्याय की देवता की भाँति तीन बार प्रदक्षिणा करना गुरु की सामाजिक प्रतिष्ठा तथा बौद्धिक उपलब्धि की नम्र स्वीकृति है। गुरु के प्रति अवज्ञा-भाव अकल्पनीय ३४. वही, ४.३४४-३५६ ३५. वही, ४.३६५-३७४
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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