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________________ ४३८ जैन संस्कृत महाकाव्य उत्प्रेक्षा कवि का अन्य प्रिय अलंकार है। काव्य में उपमा के बाद उत्प्रेक्षा का व्यापक प्रयोग किया गया है। कवि के अप्रस्तुत-विधान के कौशन के कारण उसकी उत्प्रेक्षाएँ भी बहुत रोचक तथा कल्पनापूर्ण हैं । वसुन्धरा के शृंगार-वर्णन की यह उत्प्रेक्षा, इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। उसके मुख पर अंकित पत्ररचना में कामशिशु की जन्मपत्रो की सम्भावना करना कवि-कल्पना की उर्वरता है।। व्यधात सा वदने पत्रलतां काश्मीरकश्मलाम् । जन्मपत्रीमिवानंगशिशोः सम्प्राप्तजन्मनः ॥ १.१६० काव्य में मधुरता लाने के लिए हेमविजय ने अनुप्रास का उदार प्रयोग किया है। उसने जिस मनोरम पदविन्यास को काव्य के गौरव का आधार माना है, वह बहुधा अनुप्रास पर अवलम्बित है । पार्श्वनाथ चरित के अनुप्रास ला लालित्य निविवाद है यद्यपि कवि के आवेश के कारण उस में कहीं-कहीं पुनरुक्ति अथवा अनावश्यक पदों का प्रयोग दिखाई देता है। 'वामाधरमाधुर्यं धुर्यं मधुरवस्तुषु' (३.१५०) जैसे यमक-मिश्रित अनुप्रास की काव्य में कमी नहीं है । पार्श्वनाथचरित में प्रयुक्त अन्य अलंकारों में पर्यायोक्त, रूपक, दृष्टांत, अर्थान्तरन्यास, सहोक्ति, यथासंख्य, विभावना, परिसंख्या, विरोध, कायलिंग तथा असंगति उल्लेखनीय हैं । निम्नोक्त पद्य में विद्युत्गति की विजय का प्रकारान्तर से वर्णन किया गया है, अतः यहाँ पर्यायोक्त है। यत्प्रतापस्य सूरस्य सामान्यमभिदध्महे । यदुद्गते रिपुस्त्रीदृक्कैरवैर्मुकुलायितम् ॥ २.१६ पोतना-नरेश अरविन्द के प्रताप-वर्णन के अन्तर्गत प्रस्तुत पद्य में विषम अलंकार के द्वारा उसके पराक्रम का निरूपण किया गया है। काले काजल से मिश्रित, शत्रु-नारियों के अश्रुप्रवाह से धुल कर उसका यश कलुषित नहीं हुआ, वह निर्मल ही बना रहा। द्विटस्त्रीणां सांजनैर्बाष्पधीतं येन निजं यशः। नत्यं तदपि प्राप्तं काप्यहो ! अस्य वैदुषी ॥ १.३५ उपमान चन्द्रमा की अपेक्षा उपमेय पार्श्व के भाल के अधिक्य का निरूपण होने से निम्नांकित पंक्तियों में व्यतिरेक अलंकार है। भालस्थलमशोभिष्ट विशालं त्रिजगत्पतेः। स्वसौष्ठवेनाभिशवाष्टमीशशिनः श्रियम् ॥ ४.४२२ छन्दयोजना पार्श्वनाथचरित में बहुत कम छन्दों का प्रयोग किया गया है। समूचे काव्य की रचना अनुष्टुप् छन्द में हुई है । केवल सर्गान्त के पद्य भिन्न छन्दों में हैं। मुख्य छन्द अनुष्टुप् के अतिरिक्त काव्य में वसन्ततिलका, शार्दूलविक्रीड़ित, उपजाति, द्रुतविलम्बित तथा मालिनी, ये पांच छन्द प्रयुक्त हुए हैं। सरलता की दृष्टि से
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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