SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३२ जैन संस्कृत महाकाव्य सौन्दर्य-चित्रण हेमविजय की सौन्दर्याभिरुचि प्रकृतिवर्णन के अतिरिक्त सौन्दर्य-चित्रण' में भी व्यक्त हुई है। उसने अपने पात्रों के शारीरिक सौन्दर्य का जो चित्रण किया है, वह सही अर्थ में नखशिख है । सौन्दर्य-वर्णन की यह प्रणाली बहुत पहले बद्धमूल हो चुकी थी। परवर्ती कवियों ने उसमें उद्भावना करने की अपनी असमर्थता को वर्णन की बारीकियों से सन्तुलित करने का प्रयत्न किया है। हेमविजय ने पार्श्व के सौन्दर्यवर्णन में उनके चरणों के नखों से लेकर उष्णीष तक का क्रमबद्ध चित्रण किया है। उनकी अंगुलियों के पर्यों तथा पर्यों की सौभाग्यसूचक यवराजि को भी कवि नहीं भला सका । इस प्रसंग में उसके प्रायः सभी अप्रस्तुत पूर्वज्ञात अथवा घिसे-पिटे हैं। प्रभावती का नखशिखवर्णन भी नवीनता से शून्य, रूढ़, है। कवि ने यहाँ सौन्दर्यवर्णन का पूर्व क्रम विपर्यस्त कर दिया है। पार्श्वनाथ के विपरीत प्रभावती का चित्रण उसकी केशराशि से आरम्भ होकर जंघाओं के वर्णन से समाप्त होता है। हेमविजय का यह सौन्दर्य-वर्णन पुनरुक्ति से भरपूर हैं। इसीलिये इसमें पिष्टपेषण अधिक है। उसके केशों तथा स्तनों के चित्रण पर क्रमश: दो तथा चार पद्य व्यय किये गये हैं । इन दोनों वर्णनों में कवि ने जहाँ नवीन अप्रस्तुतों की अवतारणा की है, वहाँ उन अवयवों के सौन्दर्य की अभिव्यक्ति में समर्थता तथा रोचकता आई है। उदाहरणार्थ, प्रभावती की भौंहें ऐसी प्रतीत होती थों मानो नेत्रों की दीपिका के तट पर लावण्यवल्लरी के दो अंकुर उग आये हों (४.४४१)। उसकी कोमल भुजाएँ युवकों के चंचल मन को बाँधने के दो पाश हैं (४.४५६)। गम्भीर नाभि बहुमूल्य निधि को छिपाने का काम द्वारा निर्मित बिल है (४.४६४) । परन्तु प्रभावती का सर्वोत्तम अलंकरण यौवन है, जो, कवि के शब्दों में, मानव-शरीर का सहज मण्डन है (४.४६६) । ___ तापसबाला पद्मा का सौन्दर्य-चित्रण अपनी संक्षिप्तता तथा उपमानों की सटीकता के कारण कवि के सौन्दर्यबोध को जिस उत्तमता से रेखांकित करता है, उतना अन्य कोई वर्णन नहीं । इसमें प्रयुक्त उपमान कवि की सूझबूझ तथा पर्यवेक्षणशक्ति के परिचायक हैं और उनसे इस सौन्दर्य-चित्र की स्वाभाविकता में वृद्धि हुई है। पद्मा की केशरेखा (मांग) ऐसी प्रतीत होती है मानों संसार को लूटने वाले दस्यु काम का राजपथ हो। उसकी सरल भुजाएँ रति के झूले की रस्सियों के समान पावके (५.२५), न लेभे चैतसं स्वास्थ्यं धर्मोतप्त इवाध्वगः (५.२३०), मरी वारिवद् दुर्लभम् (५.४१६), पिहिता चेतनाऽदभ्राभ्रेणेव शशिनः कला (६.५) विरक्तः सर्वथा स्त्रीषु पद्मिनीष्विव चन्द्रमा: (६.११), बन्धुं गवेषयामास रजसीव महामणिम् (६-१६४) ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy