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________________ पार्श्वनाथचरित : हेमविजयगणि ४३१ होते हैं, जिनमें विविध अलंकारों के सहारे प्रकृति के सहज रूप का चित्रण किया जाता है। वैताढयगिरि, रात्रि तथा दावानल को कवि ने इसी शैली में चित्रित किया है। इनमें दावाग्नि का शब्दचित्र अतीव सजीव तथा प्रभावशाली है। सत्त्वानां करुणध्वानस्नेहसेकादिवाधिकः । दावाग्निरन्यदा तत्र हेमाद्रावुदपद्यत ॥ २.१०४ ज्वालाभिरुच्छलन्तीभिविद्युद्भिरिव लाञ्छितः। धूमोऽपि व्यानशे धूम्रो धरोत्थ इव वार्धरः ।। २.१०५ काररत्रटत्कारैः कन्दरान् रोदयन्निव । स्फुलिंगेरुच्छलद्भिश्च तारकान् नोदयन्निव ॥ २.१०६ धूसर—मसन्दोहैरन्धयन्निव भूतलम् । प्रासीसरद् वने तत्र दावाग्निः कालरात्रिवत् ॥ २.१०७ शरत्काल का प्रस्तुत वर्णन भी संश्लिष्टात्मक शैली का द्योतक है। शरत् के स्वाभाविक उपकरणों का यह चित्रण उत्प्रेक्षा का स्पर्श पाकर रोचकता से दीप्त हो गया है। दौर्बल्यं वाहिनीवाहा भेजुर्यत्र वचोऽतिगम् । गाण्डूषीकृतपाथोधेरगस्तेरीक्षणादिव ॥ १.१८४ नीरं नीरजनीरन्ध्र स्वच्छं नीराशयेष्वभूत् । अनन्तानन्तनमल्यस्पर्धयेव समन्ततः ॥ १.१८५ विकाशः काशपुष्पाणां शोभते यत्र निर्भरम् । हंसानामीयुषां मुक्तोपदेव विहिता भुवा ॥ १.१८६ भाति यत्रातिलक्ष्मीक मण्डलं मृगलक्ष्मणः । जगज्जेतुमिवोद्युक्तं चक्रं कन्दर्पचक्रिणः ॥ १.१८७ हेमविजय ने अपने काव्य में इसी शैली में पशुप्रकृति का भी एक चित्र अंकित किया है। प्रस्तुत पंक्तियों में गीदड़ों की प्रकृति का चित्रण है, जो रात्रि में स्वर मिलाकर भोंकार छोड़ते हैं। गोमायवो रटन्ति स्म पर्यटन्तः पदे पदे । रात्रौ रात्रिचराः सद्यः प्रसूताः पृथुका इव ॥ ५.२७५ हेमविजय का प्रकृति-प्रेम उन अप्रस्तुतविधानों में भी प्रकट हुआ है, जो उसने प्रकृति से ग्रहण किए हैं। ये उसकी तत्त्वग्राही दृष्टि तथा प्रकृति की विभिन्न अवस्थाओं के ज्ञान के जीवन्त प्रतीक है। २५. कतिपय प्रकृति पर आधारित अप्रस्तुत अवलोकनीय हैं - विनाम्भोदं यथा कृषिः (२.२१६), शीतात इव तरणिम् (३.१३२), धाराहतकदम्बद्रुपुष्पवत् समुदश्वसत् (४.३४०), मा विधेहि मुधा कष्टं बीजोप्तिमिव
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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