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________________ जैनकुमारसम्भव : जयशेखरसूरि २ε भावों से उच्छ्वसित है" । कालिदास के काव्य में शंकर विवाह के पश्चात् पर्वतराज की कन्या का हाथ पकड़ कर कौतुकागार में प्रविष्ट हो गये । ऋषभदेव वधुओं के साथ मणिहर्म्य में ऐसे प्रविष्ट हुए जैसे तत्त्वान्वेषी मति और स्मृति के साथ शास्त्र में प्रवेश करता है" । कालिदास ने शंकर-पार्वती की रतिक्रीड़ा का अतीव रंगीला चित्रण किया है जिसके अन्तर्गत नाना मुद्राओं तथा भंगिमाओं को समेटने का प्रयास है । नायक-नायिका के सम्भोग का मुक्त वर्णन पवित्रतावादी जैन कवि को ग्रा नहीं हो सकता था । उसने सुमंगला के गर्भाधान से इस ओर इंगित मात्र किया है । ऋषभ कौतुकागार में भी अनासक्त भाव से, उन्हें पूर्वजन्म का भोक्तव्य मान कर विषयों में प्रवृत्त होते हैं । तीर्थंकर की विषय-पराङ्मुखता तथा मोक्षपरायणता का दृढतापूर्वक प्रतिपादन करने के लिये यह चित्रण अनिवार्य था, भले ही उस स्थिति में वह हास्यास्पद प्रतीत हो । रूढ़ि माघ, श्रीहर्ष आदि जैनकुमारसम्भव में पौर नारियों के सम्भ्रम का चित्रण कालिदास के समानान्तर वर्णन का अनुगामी है, जो कुमारसम्भव तथा रघुवंश में समान शब्दावली में उपन्यस्त है"। अश्वघोष से आरम्भ होकर यह से होती हुई परवर्ती जैन कवियों द्वारा तत्परता से ग्रहण की गयी है । परन्तु इसके प्रति उत्साह के बावजूद उत्तरवर्ती कवियों ने इसमें नवीन उद्भावना नहीं की है । फलतः जयशेखर का प्रस्तुत वर्णन कालिदास के पद्यों की प्रतिध्वनि मात्र है । कुमारसम्भव के पंचम सर्ग से संकेत पाकर जयशेखर ने नायक-नायिका के संवाद की योजना की है । यहां यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि उमा - बटु-संवाद की गणना, उसकी नाटकीयता तथा सजीवता कारण, सर्वोत्तम काव्यांशों में होती है । ऋषभ तथा सुमंगला का वार्तालाप साधारणता के धरातल से ऊपर नहीं उठ सका है । जैनकुमारसम्भव में बस्तुव्यापारों की योजना कालिदास के प्रासंगिक वर्णनों से प्रेरित है । कालिदास की तरह जयशेखर ने अपने काव्य में रात्रि तथा चन्द्रोदय का ललित वर्णन किया है, जो नवदम्पती की विवाहोत्तर चेष्टाओं की समुचित भूमिका निर्मित करता है । ऋतुवर्णन के एकमात्र अपवाद को छोड़कर, जयशेखर के प्रभात, सूर्योदय, मध्याह्न सहित उपर्युक्त वर्णन काव्य के अत्यन्त रोचक तथा २८. कुमारसम्भव, ७.८३; जैनकुमारसम्भव, ५. ५८- ८३ २६. कुमारसम्भव, ७.६५; जैनकुमारसम्भव, ६.२३ ३०. भोगाईकर्म ध्रुववेद्यमन्यजन्मार्जितं स्वं स विभुविबुध्य । जैनकुमारसम्भव ६.२६ ३१. कुमारसम्भव, ७.५६-६२; जैनकुमारसम्भव, ५ . ३७-४५
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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