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________________ ४०८ जैन संस्कृत महाकाव्य कथानक जैन पौराणिक काव्यों के लेखकों ने पुराणवर्णित शलाकापुरुषों के चरित को, नवीन उद्भावना किये बिना, यथावत् गृहीत तथा प्रतिपादित किया है । पार्श्वनाथ काव्य का कथानक भी पार्श्वनाथ के परम्परागत चरित के अनुकूल है । पार्श्व से सम्बन्धित अन्य काव्यों के इतिवृत्त की भाग हैं । प्रथम दो सर्गों में पार्श्वनाथ के नरेश अरविन्द के मन्त्री, वेदवेत्ता ब्राह्मण का द्वेष जन्म-जन्मान्तरों तक चलता है, भाँति प्रस्तुत काव्य की कथावस्तु के दो आठ पूर्वभवों का वर्णन है । पोतनाविश्वभूति के पुत्र कम्ठ तथा मरुभूति जिसके फलस्वरूप कमट का जीव अपने अनुज " के जीव को निरन्तर विकल किये रखता है । मरुभूति नाना जन्मों रूप में में कष्ट भोग कर, कालान्तर में, वाराणसी- नरेश अश्वसेन के पुत्र उत्पन्न होता है । यही काव्य के वास्तविक कथानक पार्श्वचरित का आरम्भ - बिन्दु है । तृतीय सर्ग में काव्यनायक के जन्म तथा देवों द्वारा उसके स्नात्रोत्सव का वर्णन है । देवकुमारों के साहचर्य में शैशव व्यतीत करने के बाद पार्श्व ने यौवन में प्रवेश किया। उसके यौवन - जन्य सौन्दर्य का चतुर्थ सर्ग में विस्तृत वर्णन किया गया है । कुशस्थल के शासक अर्ककीर्ति" की लावण्यवती पुत्री को बलपूर्वक हथियाने के लिये कालयवन उस पर आक्रमण करता है । अर्ककीर्ति दूत भेज कर अश्वसेन से सैनिक सहायता की याचना करता है। युवक पार्श्व तुरन्त यवन के अर्ककीर्ति विरुद्ध प्रस्थान करता है । देखते-देखते यवन - सेना छिन्न-भिन्न हो गयी । के ऊपर से विपत्ति के बादल छंट गये । वह कृतज्ञतापूर्वक पार्श्व की स्तुति करता १३ है । पंचम सर्ग में अर्ककीर्ति, उसके उपकार के प्रति आभार प्रकट करने के लिये, पार्श्व को अपनी पुत्री देने का प्रस्ताव करता है । वैराग्यशील होते हुए भी पार्श्व ने उसका प्रस्ताव स्वीकार किया किन्तु, विवाह से पूर्व ही, वह अपनी राजधानी लौट आता है । वहाँ साकेतराज के दूत को देखकर उसे, पूर्वजन्म में अयोध्या में, अर्हद् गोत्र की प्राप्ति का स्मरण हो जाता है । उसमें निर्वेद उदित होता है और वह समस्त वैभवों को ठकुरा कर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेता है । छठे सर्ग में पार्श्व तपश्चर्या में प्रवृत्त होते हैं । उन्होंने धन्य नृप के प्रासाद में तप की पारणा की, जिसके फलस्वरूप वहाँ अन्न की वृष्टि हुई। तत्पश्चात् पार्श्व तपोवन में जाकर कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हो गये । उनके देहमन्दिर से अज्ञानान्धकार नष्ट हो गया और बोध ११. पार्श्वनाथचरित के अनुसार मरुभूति कमठ का अग्रज था और उनके पिता का नाम वसुमति था । १२. पार्श्वनाथचरित में उसका नाम प्रसेनजित् है । १३. पार्श्वनाथचरित से ज्ञात होता है कि वह कलिंग का राजा था ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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