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________________ विजयप्रशस्तिमहाकाव्य : हेमविजयगणि ३५५ १६४३, माघ शुक्ला दशमी को विजयसेन से तापसव्रत ग्रहण करता है। ग्यारहवें सर्ग में अकबर के अनुरोध से हीरविजय विजयसेन को, सम्राट को प्रतिबोध देने के लिये लाहौर भेजते हैं। अकबर शत्रुजय-यात्रा को करमुक्त कर देता है और उसका अधिकार हीरसूरि को प्रदान करता है । बारहवें सर्ग में विजयसेन लाहौर पहुँचकर जैनधर्मविषयक परमात्मा के स्वरूप के बारे में सम्राट का सन्देह दूर करते हैं तथा भानुचन्द्र का नन्दि-उत्सव सम्पन्न करते हैं जिस पर अकबर के प्रधानमन्त्री अबुलफजल ने मुक्तहस्त से व्यय किया । तेरहवें तथा चौदहवें सर्ग में क्रमश: उन्नतपुर (ऊना) में हीरविजय की रुग्णता तथा निधन (सं० १६५३, भाद्रपद शुक्ला एकादशी) का वर्णन है। शोकाकुल विजयसेन गच्छ का आधिपत्य ग्रहण करते हैं। अगले दो सर्गों में विजयसेन अहमदाबाद तथा सिकन्दरपुर में जिनप्रतिमाओं की स्थापना करते हैं और विद्याविजय (वासकुमार) को पण्डित-पद पर प्रतिष्ठित करते हैं । गुणविजयकृत अन्तिम पांच सर्गों में विजयसेन द्वारा विद्याविजय को पट्टधर अभिषिक्त करना, प्रतिमा, प्रतिष्ठा, फिरंगियों के समक्ष आहेत धर्म का तत्त्व-विवेचन करना आदि घटनाएँ वणित हैं । अपने शासनकाल में आचार्य विजयसेन ने आठ शिष्यों को उपाध्यायपद प्रदान किया तथा सैकड़ों को पण्डित-पद पर प्रतिष्ठित किया, जो विभिन्न विषयों के दिग्गज विद्वान् हुए। विजयप्रशस्त में इस प्रकार हीरविजय तथा उनके पट्टधर विजयसेन का धार्मिक चरित निबद्ध है । मूल रचना (१६ सर्ग) में आचार्य हीरसूरि का व्यक्तित्व प्रमुख है । इस भ ग में विजयसेन के जीवन की कुछ ही घटनाओं की चर्चा हुई है। अन्तिम पांच सर्ग विजयसेन सूरि के इतिवृत्त को आगे बढ़ाते हैं। रसयोजना विजयप्रशस्ति इतिवृत्तप्रधान काव्य है। इसके कथानक की प्रकृति तथा वातावरण के अनुरूप इसमें महाकाव्यसुलभ तीव्र रसवत्ता का अभाव है। यह इसकी बहुत बड़ी त्रुटि है । शान्तरस के प्रति कवि के पक्षपात के कारण इसे काव्य का अंगी रस माना जा सकता है। शान्तरस की अभिव्यक्ति के काव्य में अनेक स्थल हैं । विविध पात्रों के प्रव्रज्या ग्रहण करने तथा धर्मोपदेशों आदि के अन्तर्गत काव्य में शान्तरस की व्यंजना हुई है। कवि के साहित्यशास्त्र में शान्तरस रसराज के पद पर आसीन है (श्रीशान्तो रसाधिपः-१२.१५३) । संवेगोत्पत्ति के पश्चात् कुमार जयसिंह को संसार असार, नारी मोक्षमार्ग की अर्गला तथा गृहस्थता मदिरा के समान भ्रमजनक प्रतीत होती है । उसे संयम में ही सच्चा सुख दिखाई देता है। उसकी यह शमवृत्ति शान्त स में परिणत हुई है। अपि शिवा वनि निबद्धधियां नमामघनिदानमभाणि जिनेन या। मग तदम्ब ! गृहस्थ तया तया किमधुना मधुना महतामिव ॥ ५.१०
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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