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________________ ३५४ जैन संस्कृत महाकाव्य ग्रन्थों का प्रणयन एक साथ चल रहा था। ऋषभशतक तथा कथारत्नाकर तो पूरे हो गये, विजयप्रशस्ति कवि के निधन के कारण अधूरी रह गयी। अतः हेमविजय का मूल काव्य निश्चित रूप से १६५५ सं० के बाद की रचना है। सतरहवें सर्ग का आरम्भ सम्वत् १६५६ में विद्याविजय को पट्टधर प्रतिष्ठित करने के प्रसंग से होता है । अन्तिम पांच सर्ग स्पष्टतः सम्बत् १६५६ के पश्चात् लिखे गये होंगे। समूचे काव्य को सम्वत् १६५५ तथा १६८८ (टीका का रचना काल) अर्थात् सन् १५९८ तथा १६३१ ई० की मध्यवर्ती रचना मानना युक्तिपूर्ण होगा। कथानक काव्य का प्रारम्भ मेवाड़ की प्रसिद्ध नगरी नारदपुरी (नडुलाई) तथा वहाँ के धनवान् व्यापारी कमा तथा उसकी रूपसी पत्नी कोडिमदेवी के वर्णन से होता है। द्वितीय सर्ग में उक्त दम्पती के पुत्र काव्यनायक का जन्म, शैशव तथा विद्याध्ययन वणित है । तृतीय सर्ग में पूर्वाचार्यों, विशेषतः विजयदानसूरि तक तपागच्छ के आचार्यों की परम्परा का निरूपण किया गया है। चतुर्थ सर्ग में विजयदानसूरि के भावी पट्टधर हीरविजय के जन्म, प्रव्रज्या तथा क्रमश: पण्डित, उपाध्याय एवं आचार्य पद प्राप्त करने का वर्णन है । हीरहर्ष (हीरविजय) को, मार्गशीर्ष शुक्ला दशमी, सम्वत् १६१० को सिरोही में आचार्य-पद पर प्रतिष्ठित किया गया। पांचवें सर्ग में जयसिंह, सूरत में, अपनी माता के साथ विजयदानसूरि से तापस-व्रत ग्रहण करता है। यहीं कुमार जयसिंह को देखने को लालायित पुरसुन्दरियों के सम्भ्रम का रोचक चित्रण किया गया है। छठे सर्ग में विजयदान, जयविमल (जयसिंह का दीक्षोत्तर नाम) की शिक्षा तथा अनुशासन का दायित्व हीरविजय को सौंपते हैं। विजयदान के निर्वाण (सम्वत् १६२१) के पश्चात् हीरविजय गच्छ के सूत्रधार बनते हैं। शासनदेव के आदेश से वे जयविमल को क्रमशः उपाध्याय तथा आचार्य पद प्रदान करते हैं । इसके बाद जयविमल विजयसेन नाम से ख्यात हुए। आठवें सर्ग में हीरविजय, अहमदाबाद में, पौष कृष्णा दशमी, सम्वत् १६३० को अपने पट्टधर विजयसेन का वन्दनोत्सव सम्पन्न करते हैं। चतुर्मास के लिये हीरविजय गन्धार प्रस्थान करते हैं, विजयसेन पाटन की ओर । न सर्ग में मुगल सम्राट अकबर के निमन्त्रण पर हीरविजय, सम्वत् १६३६ की ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी को, गन्धार से फतेहपुरी पहुँचते हैं। अकबर ने परमात्मा के स्वरूप के विषय में हीरसूरि के साथ दो बार गम्भीर विमर्श किया तथा आचार्य की प्रेरणा से वर्ष में बारह दिन के लिये राज्य में जीवहत्या वजित कर दी। दसवें सर्ग में विजयसेन, पाटन में, खरतरगच्छीय श्रीसागर को चौदह-दिवसीय विवाद में परास्त करते हैं। ईडरवासी महेभ्य स्थिर का पुत्र, वासकुमार, अपनी माता के साथ अहमदाबाद में, सम्वत्
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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