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________________ ३४६ जैन संस्कृत महाकाव्य प्रयोग हुआ है । भाषा में भावानुकूल परिवर्तन कवि के भाषाधिकार का द्योतक है । प्रकृति-वर्णन, सौन्दर्यचित्रण आदि प्रसंगों में कवि के भाषा कौशल का दिग्दर्शन किया गया है । सर्वविजय ने भाषा के प्रयोग में परम्परा को यथावत् ग्रहण किया है । काव्य में सर्वत्र प्रसाद की अन्तर्धारा प्रवाहित है । प्रसादगुण पर आधारित वैदर्भी रीति में माधुर्य व्यंजक वर्गों तथा समासरहित अथवा अल्पसमासयुक्त पदावली के प्रयोग का विधान है । वसन्त, शृङ्गार, पौर युवतियों के सम्भ्रम-चित्रण आदि प्रसंगों में सरल,मृदुल, अनुप्रासमय तथा अल्पसमासयुक्त भाषा से वैदर्भी के प्रति कवि पक्षपात स्पष्ट है । काम का दूत वसन्त मलयमारुत के मदमस्त हाथी पर बैठ कर, सम्राट् की तरह, पूरे ठाटबाट से सुमतिसाधु को विचलित करने के लिए प्रस्थान करता है । सकिल मलयवातं मतमातंगनाथं प्रकटपरिमलोद्यद्भृंगमालासनाथम् । तमधि समधिरुह्य प्राचलत्कोकिलालिक्वणितनिभृतभेरीभांकृतिपूरिताभ्रः ॥ चलति सबलमस्मिन् विस्मिता नेकलोके भयमयहृदया: के के न चेलुस्त्रिलोक्याम् । तरुवनघनकंप्रेश्चोपपन्नाः कुलेन प्रतिकुलमचलास्ते प्राक् चलन्तीति शंके || तरुरिह सहकारः कोकिलकिकिणीभिः सह वहति विनीलछत्रतामस्य मौलौ । प्रतिदिशमुडुपालीपांडरा पुण्डरीकावलिरलभत चंचच्चामरत्वं च तस्य ।। ५.१६.१८ भावानुकूल भाषा की दृष्टि से कुमार को देखने को लालायित पौर नारियों की अधीरता का चित्रण उल्लेखनीय है । यद्यपि सर्वविजय ने इसे केवल कविसमय के रूप में, काव्य में, स्थान दिया है और यह पूर्ववर्ती कवियों के वर्णनों से अनुप्राणित तथा प्रभावित है तथापि कवि ने जिस पदावली के द्वारा उसे चित्रित किया है, वह पुर-सुन्दरियों की उत्सुकता, सम्भ्रम तथा अधीरता को व्यक्त करने में पूर्णतया सक्षम है । उच्चार्य चाटूनि चिरं वचांसि मोमोचयेत् कुत्रचनावकाशम् । काचिन्मृगाक्षी स्वसखीजनेन गवाक्षगा मंक्षु निरीक्षणाय ।। ४.२५ काचिच्च कान्ता निजनेत्रमेकं शलाकया सांजनमारचय्य । अनंजनेनापरलोचनेन विलोकनार्थं कुतुकादचालीत् ॥ ४.२७ गर्वीले काम तथा वीतराग सुमतिसाधु के प्रतीकात्मक युद्ध के वर्णन की भाषा को सामान्यत: ओजपूर्ण कहा जा सकता है, किन्तु, वास्तव में, वह भी प्रसाद से ओतप्रोत है । इसका कारण यह है कि यह राज्यलोलुप राजाओं का युद्ध नहीं है, न इसकी परिणति नरसंहार में हुई है । (आ) पाण्डित्य - प्रदर्शन : चित्रकाव्य ललित तथा सुबोध भाषा सर्वविजय की सुरुचि की परिचायक है । किन्तु वह चित्रकाव्य - शैली के आकर्षण से पूर्णतः नहीं बच सका है । भारवि से प्रारम्भ होकर
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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