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________________ -सुमतिसम्भव : सर्वविजयगणि कटाक्षलक्षां क्षणमायताक्षी चिक्षेप लक्ष्यं प्रति या वलक्षाम् । मेने सुमेषुस्त्रिजगज्जिगीषुस्तां मीनमालामिव मंगलार्थम् ॥ २.४१ कुमार का सौन्दर्य-वर्णन पुरुष-सौन्दर्य का प्रतिनिधित्व करता है । यहाँ भी कवि ने परम्परागत नखशिख-प्रणाली को सौन्दर्य-चित्रण का माध्यम बनाया है, किंतु इसमें व्यतिरेक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग अधिक तत्परता से किया गया है। इस विधि से निरूपित कुमार के सौन्दर्य के सम्मुख काम का लावण्य भी मन्द पड़ जाता है। किमधिकं बहुभिः किल जल्पितस्तदुपमा स्वपररपि कल्पितः। स भुवि तादृगभूत्सुषमाधिभूर्यदणुतां वृणुतां कमन: स नः ॥ ३.४४ चरित्रचित्रण सुमतिसम्भव की कथावस्तु में केवल तीन उल्लेखनीय पात्र हैं, किन्तु उनके चरित्र का भी यथेष्ट विकास नहीं हो सका है, यह बहुत खेद की बात है । काव्यनायक सुमतिसाधु धनकुबेर परिवार में जन्म लेकर तथा सुख-वैभव में पलकर भी सांसारिक बन्धनों से मुक्त हैं । माता-पिता के विवाह-सम्बन्धी प्रस्ताव को ठुकरा कर वे चारित्र्यलक्ष्मी का वरण करते हैं। उनका जीवन संयम, साधना तथा त्याग का कठोर जीवन है । वे निरन्तर धर्मोद्धार में तत्पर हैं। पदप्रतिष्ठा, प्रतिमास्थापना आदि उनके धार्मिक कृत्य आहेत मत के उन्नायक हैं। ____ माण्डू का धनी व्यापारी जावड़ सुमतिसाधु का श्रद्धालु भक्त है । वह आबू तथा जीरपल्ली की संघयात्रा करके संघपति की गौरवशाली उपाधि प्राप्त करता है। गुरु की प्रेरणा से वह श्रावक के द्वादश व्रत ग्रहण करता है, मूर्ति-प्रतिष्ठा करवाता है तथा उदारतापूर्वक दान देकर पुण्यार्जन करता है । उसका समूचा जीवन गुरु के बुद्धिपूर्ण मार्गदर्शन से परिचालित है। गजराज ज्यायपुर का यशस्वी शासक है। उसका यश स्वगंगा के तट तक फैला हुआ है । वह धनाढय इभ्य है । उसकी धन-सम्पदा असीम है । ऐसा प्रतीत होता है कि लक्ष्मी अपने कष्टपूर्ण आवास (सागर) को छोड़कर उसके घर में रह रही हो ! गजराज के लिए धन की सार्थकता दान में है । उसके त्याग के क्षीरसागर में न वाडवाग्नि है, न कालकूट । वह जैन धर्म के उद्धार के प्रति इतना जागरूक है कि उसकी तुलना सम्प्रति आदि प्राचीन प्रभावकों से की गई है। भाषा (अ) सुमतिसम्भव की कथावस्तु की प्रकृति ऐसी है कि उसमें विविध मनःस्थितियों के चित्रण का अधिक अवकाश नहीं है। इसीलिए इसकी भाषा में महाकाव्योचित वैविध्य नहीं है । काव्य में प्रायः सर्वत्र प्रसादगुणसम्पन्न प्रांजल भाषा का
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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