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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य ३३० तुलना यहां हंसों से की गयी है जो गुणों के श्वेत रंग के कारण बहुत सटीक है । काव्य में अन्यत्र श्लेषोपमा का प्रयोग भी दृष्टिगत होता है । मालोपमा के भी कति - पय उदाहरण उपलब्ध हैं । " प्रगुणैः सद्गुणैः सोमः शुशुभे स शुभेक्षणः । कासार इव वा:सारः सितद्युतिसितच्छदैः ।। २.७१ पदप्रतिष्ठा के लिए सजे हुए, इभ्य देवराज के घर के वर्णन में उत्प्रेक्षा की छटा दर्शनीय है । यहाँ देवराज के घरों में श्रद्धापूर्ण हृदयों की सम्भावना की गयी है । वातो मवेल्लच्छु चिकेतनानि निकेतनानि व्यवहारिनेतुः । भासि तस्य गुणान्वितस्य श्रद्धोज्ज्वलानीव लसन्मनांसि ॥ ६.४४ निम्नोक्त पंक्तियों में सोमसुंदर के एक पट्टधर रत्नशेखरसूरि तथा चन्दन-वृक्ष के वर्णन में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव है । अतः यह दृष्टांत अलंकार है । आशैशवादपि नयी विनयी विभाति विज्ञो मनोज्ञगुणभूत् त्रिजगद्गुरुर्यः । fe चन्दनद्रुदयन्नपि नो लभेतोच्चै निर्मलं परिमलं भुवनप्रशस्तम् ।। १०.२६ गुरु सोमदेव की वाग्मिता के ज्ञापक इस पद्य में विशेष कथन का सामान्य उक्ति से समर्थन किया गया है । इसलिए इसमें अर्थान्तरन्यास अलंकार है । वादोवरां भजति यत्र हि काकनाशं नेशुः प्रवादिनिकरा मुखरा अपि श्राक् । asi वितन्वति वने प्रबले मृगेन्द्र निःशुकशुकरगणाः प्रसरन्ति कि ते ।। १०.३५. प्रह्लादनपुर के प्रस्तुत वर्णन में क्रमशः कथित धनुष से गुणवान् का, शारि से जन का तथा खड्ग से पुरनायक का व्यवच्छेद होने के कारण परिसंख्या अलंकार है । दृश्येत यत्र धनुषो गुणभंगभावो लोकस्य नो गुणवतः स कदाचनापि । मारिस्तु शारिषु न चैव जनेषु, खड्गे पूर्नायके भवति नो दृढमुष्टिता च ॥ १.२३ लक्ष्मीसागरसूरि के वाक्कोशल के प्रस्तुत पद्य में उनके वचनों से श्रेताओं के हृदयों के आर्द्र होने तथा कोमल वाणी से पत्थर के फूटने के वर्णन में विरोधअलंकार है । आर्द्रीकृतानि वचनह सचेतनानां चित्तान्यतुच्छतपगच्छपुरन्दरस्य । ६. भ्रातानुजस्तस्य च हेमराजो रराज राजेव स राजमान्यः । स्वगोविलासैर्नयते विकाशं यं कौमुदं [पापतमः प्रहंता ।। सोमसौभाग्य, ६.२० १०. वही, १.५१,६२ आदि
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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