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________________ -३२८ जैन संस्कृत महाकाव्य हुआ है । अनुप्रास तथा यमक स दृष्टि से बहुत उपयोगी हैं। ईडरनरेश रणमल्ल का प्रस्तुत वर्णन, इस सन्दर्भ में, उल्लेखनीय है। तस्याधिपः समभवद् भवदेवभक्तो ___ युक्तो गुणैरविधुरो विधुरोचिरिद्धः । दोर्वीर्य निजितरणो रणमल्लभूपः कंदर्परूपकलितः कलितापमुक्तः ॥ ७.४ प्रतिष्ठासोम ने एक पद्य के द्वारा अपना रचना-कौशल अथवा शाब्दी क्रीडा प्रदर्शित करने की चेष्टा भी की है । इस पद्य में पुल्लिग 'यत्' के सातों विभक्तियों के एकवचन के रूपों का प्रयोग किया गया है। इसे चित्रकाध्य कहना तो न्यायोचित नहीं किन्तु यह प्रवृत्ति उसी ओर संकेत करती है। दधे कृष्णसरस्वतीति विरुदं यो, यं च विद्वत्प्रभु प्राविज्ञनरा, महार्णवसमस्तीर्णो भवो येन च । यस्मै भूपगणो नमस्यति, शुभं यस्माच्च, यस्योज्ज्वला मूर्तिः स्फूर्तियुता, परा गुणभरा यस्मिश्च वासं व्यधुः ।।१०.५१ सोमसौभाग्य में प्रायः सर्वत्र प्रसादगुणसम्पन्न पदावली का प्रयोग हुआ है, जो नियमतः समासरहित अथवा अल्पसमास-युक्त होती है । परन्तु काव्य में, कतिपय स्थलों पर, समासान्त पदावली भी दृष्टिगम्य होती है। यह अवश्य है कि उसकी समासान्त भाषा में भी क्लिष्टता नहीं है । पूर्वोद्धृत समेला-तटाक का वर्णन समासान्त पदावली में होता हुआ भी सरल तथा सुबोध है। सोमसौभाग्य की भाषा में कुछ दोष भी विद्यमान हैं। प्रतिष्ठासोम के कुछ प्रयोग व्याकरण की दृष्टि से चिन्त्य हैं । 'गाहमाने नभोंगणम्' के स्थान पर 'नभोंगणे' (२.५७), हृदयं दयेद्धं ......"प्रवरोऽध्युवास' के लिए 'हृदये दयेद्धे', (५.६) 'दृक्पथमायाताः' की जगह 'दृक्पथेष्वायाताः' (५.५६) 'जज्ञिरे' के स्थान पर 'जजुः' (६.१, २६), वरसूरिपदप्रतिष्ठाकारणेन के लिए... .कार'पणेण (७.२२), तथा 'विभुना समः' की जगह 'विभोः समः' (८.६१) का प्रयोग पाणिनीय शास्त्र का उल्लंघन है। 'विचिन्त्येति ततः पुण्यस्ततः' (२.२५), अन्यदोव्यां गु| (३.४०), भ्रातानुजः (६.२०), शुचिवाचमूचे (६.२३), पीयूषयूषम पि तं मधुरत्वयुक्तम् (७.८०), सौवमात्मानं (६.१), स्वात्मानं न हि केवलं (१०.६१) तथा बहुधामभृद्भाक् (१.६०) पदो में अधिक दोष है । 'रमाश्रितांगः' के लिए 'कंसमथनांगनयाश्रितांग:' (४.६२) का 'विचित्र प्रयोग 'क्लिष्टत्व' दोष से दूषित है । चेल्लाति दीक्षाम् (४.२८) तथा चेत्स्थापयामि (५.२७) पदों में 'चेत्' का पद के आरम्भ में प्रयोग वामन के विधानन पदादौ खल्वादयः—का अतिक्रमण होता हुआ भी जैन कवियों को मान्य है । अन्य जैन काव्यों की तरह सोमसौभाग्य में नफेरी, घोल, जेमनवार, ढौल्ल,
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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