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________________ वस्तुपालचरित : जिनहर्षगणि ३१३ चरित्रचित्रण काव्य में वस्तुपाल तथा तेजःपाल के चरित्र का ही कुछ पल्लवन हुआ है । इन दोनों का चरित्र भी इस प्रकार मिश्रित है कि उनका पृथक् पृथक् चित्रण करना सम्भव नहीं है। अतः यहाँ दोनों के व्यक्तित्व की विशेषताओं का एक-साथ निरूपण किया जा रहा है। वस्तुपाल (तथा तेजःपाल) के समूचे चारित्रिक गुण निम्नांकित पद्य में समाहित हैं। अन्वयेन विनयेन विद्यया विक्रमेण सुकृतक्रमेण च । क्वापि कोऽपि न पुमानुपैति मे वस्तुपालसदृशो दृशोः पथि ॥ १.७ वे कुलीन, शिष्ट, विद्वान्, पराक्रमी तथा विनयसम्पन्न हैं। उनके सद्गुण दैनिक व्यवहार में प्रतिम्बित हैं । प्रथम मिलन में ही वे वीरधवल को अपने आभिजात्य से प्रभावित करते हैं । वह उनके शिष्टाचार तथा कुलीन व्यक्तित्व की प्रशंसा इन शब्दो में करता है। आकृतिर्गुणसमृद्धिसूचिनी नम्रता कुलविशुद्धिशंसिनी । वाक्क्रम : कथितशास्त्रसंक्रम : संयमश्च युवयोर्वयोऽधिक ः ॥ १.२३५ वस्तुपाल तथा तेजःपाल का व्यक्तित्व मुख्यत: राजनीति तथा धर्म की भित्ति पर आधारित है । वे वीरधवल के नीतिकुशल तथा न्यायप्रिय मन्त्री हैं । वे उसका मन्त्रित्व तभी स्वीकार करते हैं जब वह उन्हें न्यायपूर्वक राज्य का संचालन करने का आश्वासन देता है। यह उनकी राजनीतिक आदर्शवादिता का द्योतक है । महामात्यों की संहिता में राजव्यापार के पांच फल हैं—सज्जनों का पोषण; दुष्टों का दमन, धन एवं धर्म की वृद्धि तथा लोकरंजन । प्रजापालन राजा का पुनीत कर्तव्य है । जो शासक प्रजा के कल्याण में तत्पर रहता है, उसे प्रजा के धर्म का षष्ठांश प्राप्त होता है किन्तु कर्त्तव्य से विमुख राजा को प्रजा के अधर्म का छठा भाग भोगना पड़ता है। उसके राज्य में धर्म तथा नीति का क्षय होता है तथा मात्स्यन्याय संसार को ग्रस लेता है । वे इन उदात्त आदर्शों के अनुसार ही राजतन्त्र का संचालन करते हैं । समय-समय पर अधिकारियों से आयशुद्धि मांग कर वे प्रशासन से भ्रष्टता दूर करने का प्रयत्न करते हैं, राजकीय ऋणों को शीघ्र वापिस लेने की व्यवस्था करते हैं, राजकोश को सम्पन्न बनाते हैं तथा सेना को सूसंगठित कर विपक्षी राजाओं का उच्छेद करते हैं। ___ वस्तुपाल-तेजःपाल रणबांकुरे वीर हैं। उनकी वीरता कूटनीति से परिचा लित है । भद्रेश्वरनरेश भीमसिंह, शंख तथा गोध्रानरेश के विरुद्ध अभियानों में उनकी रणनीति तथा शूरवीरता का यथेष्ट परिचय मिलता है । दुर्द्धर्ष मोजदीन के आकस्मिक ६. वही, १.२५५ १०. वही, २.२१४,२२४,२२६
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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