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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य ३१२ के फल का कभी क्षय नहीं होता । धर्मोपष्टम्भदान शय्या, चतुर्विध आहार, वस्त्र, पात्रादि भेद से नाना प्रकार का होता है । पात्र सात प्रकार का माना गया हैजैन बिम्ब, भवन, पुस्तकसंचय तथा चतुर्विध संघ । रसयोजना वस्तुपालचरित में काव्यसौन्दर्य को वृद्धिगत करने वाले रसार्द्र प्रसंग बहुत कम हैं । सम्भवतः जिनहर्ष का असंघटित कथानक इसके लिये अधिक अवसर प्रदान नहीं करता । काव्य में एक-दो स्थलों पर प्रसंगवश, वीर तथा करुण रस की अभिव्यक्ति हुई है । यह भी 'ग्रामं गच्छन् तृणं स्पृशति' वाली बात है । वीर रस को, पौराणिकता से भरपूर इस रचना का मुख्य रस मानना तो काव्य का उपहास होगा किन्तु पल्लवित रसों में इसकी प्रधानता है, यह मानने में आपत्ति नहीं हो सकती ! द्वितीय, चतुर्थ तथा सप्तम प्रस्तावों में, युद्ध वर्णन के प्रसंगों में, वीर रस की छटा दृष्टिगत होती है पर इसका सफल परिपाक केवल तृतीय प्रस्ताव के अन्त, वर्ती तेजःपाल तथा गोध्रानरेश के युद्ध के निरूपण में हुआ है । मन्त्रिराज तेज: पाल, योद्धाओं के देखते-देखते, गोध्रा के राजा को क्रौंचबन्ध में बांध कर काठ के पिंजड़े में बन्द कर देता है । 1 अथ दिव्यबलोल्लासाल्लीलया मंत्रिपुंगवः । अपातयत्क्षणादेव तमश्वाद्विश्वकष्टकम् ॥ ३.३३० भुजोपपीडमापीड्य तं ततः पापपूरितम् चबन्धं बबन्धासौ जवेन सचिवाग्रणीः ।। ३.३३२ तं पश्यत्सु भयभ्रान्त सुभटेष्वखिलेष्वपि । शार्दूलमिव चिक्षेप जीवन्तं काष्ठपंजरे ॥ ३.३३३ वस्तुपाल के स्वर्गारोहण से उत्पन्न दुःख के चित्रण में करुणरस की मार्मिक व्यंजन | हुई है । वस्तुपाल का पुत्र, जैत्रसिंह, उसके आश्रित कवि तथा चालुक्य - नरेश सभी इस वज्रपात से स्तब्ध रह जाते हैं । शुष्कः कल्पतरुर्मदांगण गतश्चिन्तामणिश्चाजरत् क्षीणा कामगवी च कामकलशो भग्नो हहा देवत । किं कुर्मः किमुपालभेमहि किमु ध्यायामः कं वा स्तुमः कस्याग्रे स्वमुखं स्वदुःखमलिनं संदर्शयामोऽधुना ॥ ८. ५७८ स्वर्गस्थ वस्तुपाल यहाँ आलम्बन विभाव है । उसके उपकारों तथा दानशूरता आदि की स्मृति उद्दीपन विभाव है । कवियों का स्वयं को असहाय तथा किकर्त्तव्य• विमूढ़ अनुभव करना और विधि को उपालम्भ देना अनुभाव हैं । ग्लानि, स्मृति • आदि संचारी भाव हैं । इनसे समर्थित होकर कवियों के हृद्गत स्थायी भाव शोक की परिणति करुण रस में हुई है । ८. वही, ४.३६६-४१५
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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