SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुमारपालचरित : चारित्र सुन्दरगणि ३०३ शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा, दण्डक, स्रग्विणी, वंशस्थ आर्या, और गाथा । दो छन्दों के नाम ज्ञात नहीं हो सके हैं । काव्य में उपजाति की प्रधानता है । इसके बाद अनुटुप् का स्थान है । कुमारपालचरित में ऐतिहासिक सामग्री कुमारपालचरित का ऐतिहासिक वृत्त सर्वत्र असंदिग्ध अथवा विश्वसनीय नहीं है, किन्तु इससे अनहिलवाड़ के चौलुक्यवंश, विशेषकर कुमारपाल के इतिहास की कुछ जानकारी मिलती है, जिसके सत्यासत्य का परीक्षण, वस्तुस्थिति से अवगत होने के लिये आवश्यक है । काव्य का ऐतिहासिक वृत्त भीमदेव से प्रारम्भ होता है, जो गुजरात के चालुक्यवंश के संस्थापक मूलराज का प्रतापी वंशज था । चारित्रसुन्दर का कथन है कि उसके पुत्र क्षेमराज ने राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी होते हुए भी, राज्यसत्ता स्वेच्छा से अपने विमातृज भाई कर्ण को सौंप दी थी । यद्यपि प्रबन्धचिन्तामणि आदि में भी ऐसा विवरण मिलता है, किन्तु क्षेमराज को सम्भवतः अपनी माता की चारित्रिक पृष्ठभूमि के कारण राज्याधिकार से वंचित रहना पड़ा था, जो वस्तुतः वारवनिता थी पर उसके रूप पर रीझ कर भीमदेव ने उसे अपने अन्तःपुर में रख लिया था । काव्य में कर्ण के लिये प्रयुक्त 'वर्णव्रजपूजितस्य ' (१.१.४० ) विशेषण की कदाचित् यही ध्वनि है कि क्षेमराज अभिजातवर्ग को मान्य नहीं था । उसे राज्यदान का श्रेय देना अतिरंजना मात्र है । चारित्रसुन्दर के कथन से यह निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि क्षेमराज तथा कर्ण के सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण थे और वे सौतेले भाइयों की परम्परागत डाह से मुक्त थे । जयसिंह के वृत्तान्त में भी सत्यासत्य का मिश्रण है । अष्टवर्षीय शिशु जयसिंह के ऊपर राज्य का दुर्वह भार लादने की कर्ण के लिये क्या विवशता थी, यह काव्य - से स्पष्ट नहीं है । सिद्धराज की मालवविजय की घटना सत्य तथा प्रमाण-पुष्ट है ।" वडनगरप्रशस्ति से ज्ञात होता है कि जयसिंह ने मालवप्रदेश को अपने राज्य में मिला लिया था । किन्तु दिग्विजय के अन्तर्गत उसके द्वारा पराजित देशों की सूची - कर्णाटक, लाट, मगध, अंग, कलिंग, वंग, कश्मीर, कीर तथा मरुप्रदेश' - परम्परागत प्रतीत होती है । कुमारपाल के प्रति जयसिंह का अमानुषिक वैर इतिहास प्रसिद्ध है । यह वैर ६. कुमारपालचरित, १.१.४०-४१ ७. वही, १.२.२८ वही, १.२.३४-३५ ८. 2. वही, १.२.३८
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy