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________________ ३०२ जैन संस्कृत महाकाव्य मैं बाधक होते हैं, अत: कुमारपालचरित में उनका बहुत कम प्रयोग किया गया है । विजयी जयसिंह का यह प्रशस्तिगान यमक पर आधारित है । जीव जीवसम । विद्यया सदानन्द । नन्दनसमान । समान । नन्द नन्दसम | दाननिरस्तकर्ण । कर्णसुत । सिद्धनरेन्द्र ॥१.२.६७ अर्थालंकारों में रूपक, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, सहोक्ति, अतिशयोक्ति, व्याजस्तुति, विरोध, परिसंख्या, समासोक्ति आदि प्रसिद्ध अलंकारों को भाव प्रकाशन का माध्यम बनाया गया है । कुमारपाल के पूर्व-भव के वर्णन के प्रसंग में रूपक का यह रोचक प्रयोग दर्शनीय है । गुरुवचनसुधाभिस्ताभिरेवं प्रसिक्तो हृदयवर्ती निर्वat कोपवह्निः । ६.२.११ योगी देवबोध की आत्मविकत्थना अतिशयोक्ति में प्रकट हुई है । उसकी वाक्पटुता के समक्ष बृहस्पति, ब्रह्मा और महेश्वर भी मूक हैं । बृहस्पतिः किं कुरुतां वराको ब्रह्मापि जिह्मो भवति क्षणेन । मयि स्थिते वादिकन्द्रसिहे नेवाक्षरं वेत्ति महेश्वरोऽपि ॥५.३.४ निम्नोक्त पद्य में कुमारपाल की प्रीति, प्रतीति प्रभुता तथा प्रतिष्ठा का - क्रमश: गुरु, धर्म, शरीर तथा त्रिलोकी के साथ सम्बन्ध होने के कारण यथासंख्य अलंकार है । प्रीतिः प्रतीतिः प्रभुता प्रतिष्ठा तस्याभवद् भूमिपतेः प्रकृष्टा । गुरौ च धर्मे वपुषि त्रिलोक्यां पक्षे सिते चन्द्रकलेव नित्यम् ॥ १०.१.२ आम्बड़ ने कोंकणराज के छत्र के साथ ही उसकी कीर्ति को भूमिसात् कर - दिया । यह सहोक्ति है । की साकं कंकपत्रेण धात्र्यां शत्रोश्छत्रं पातयामास पश्चात् । ३.३.४६ छन्द योजना छन्दों के प्रयोग में कुमारपालचरित्र में घोर अराजकता है । इसके अधिकतर सर्गों में ही नहीं, वर्गों में भी, नाना वृत्तों का प्रयोग किया गया है। जिन स तथा वर्गों में एक छन्द का प्राधान्य है, उनमें भी कवि ने बीच-बीच में अन्य छन्दों - का समावेश कर ऐसा घोटाला कर दिया है कि इस द्रुत छन्द-परिवर्तन से पाठक मांझला उठता है । छन्द-योजना में कवि ने जिस श्रम का व्यय किया है, यदि उसका उपयोग वह अन्यत्र करता तो उसकी रचना अधिक आकर्षक बन सकती थी । कुमारपालचरित में, कुल मिलाकर, तेईस छन्द प्रयुक्त हुए हैं, जो इस प्रकार हैं— अनुष्टुप् इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, शालिनी, स्वागता, भुजंगप्रयात, द्रुतविलम्बित, रथोद्धता, वसन्ततिलका, मालिनी, हरिणी, शिखरिणी, मन्दाक्रान्ता,
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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