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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य २७२ क्षमता नहीं है: वस्तुतः नयचंद्र 'स्मरकलाविदुर''कामकला के आचार्य हैं । उनकी यह कामकला-प्रवीणता उन्हें हिंदी के रीतिकालीन कवियों की पंक्ति में खड़ा कर देती है । इस दृष्टि से मूल्यांकन करने पर हम्मीरकाव्य में वनविहार, जलकेलि तथा सम्भोगक्रीड़ा के वर्णन, कामकला से अनुमोदित शृंगार रस की सघनता से अतप्रोत हैं। नयचन्द्र के शृंगार की वास्तविक प्रकृति से परिचित होने के लिये कुछ उदाहरण आवश्यक हैं । वनविहार करते समय एक नायक वृक्ष पर चढने लगा । नीचे खड़ी नायिका ने कोंपल समझ कर उसका पैर पकड़ लिया । प्रिय के स्पर्श से उसका शरीर रोमांच से भर गया । आनन्दातिरेक की उस स्थिति में उसने प्रिय के पांव को न खींचा और छोड़ा। उसे पकड़े वह प्रियतम के अंगस्पर्श का सुख लूटती रही । वयितस्य वृक्ष मधिरूढवतः पदमाशु पल्लवधिया विघृतम् । न चकर्ष नैा च मुमोच परा पदवाप्तिजातपुलकप्रसरा ॥ मुग्धा के इस संयत आचरण के विपरीत प्रणयी युगलों की शृंगार- चेष्टाओं के वे चित्र हैं जो नयचन्द्र के घोर विलासी तथा ठेठ कामुकतापूर्ण पद्य हैं और इस कला के आचार्य भारवि तथा माघ के इसी कोटि के वर्णनों को आसानी से पछाड़ सकते हैं । हम्मीरमहाकाव्य के ये प्रसंग पढ़ने मात्र से पाठक की वासना को उत्तेजित कर देते हैं । 'रति समाप्त होने पर नायक ने क्रिया से विरत होने की चेष्टा की । नायिका उस सुख से वंचित नहीं होना चहती थी । अतः उसने नायक को दृढ़ता से जंघाओं में कस लिया । विजय के इस उल्लास और उससे प्राप्त सुख को उसने कभी मुस्करा कर, कभी बतिया कर और कभी हुहुं शब्द से प्रकट किया ।' रतिविरामभवादुपगूहनाद् विघटनेच्छुमवेत्य परा प्रियम् । सुदृढमूरुयुगेन निपीडयन्त्यतत हुहुमिति स्मितजल्पितम् ॥ ७.१०८ एक अन्य प्रोढा विपरीतरति में लीन थी । वह क्रिया के चरम बिंदु पर पहुँचने वाली थी कि नायक उसके 'पुरुषायितलाघव' (विपरीतरति की कुशलता) को देखने लग गया । इससे वह लजा गयी । रति को तो वह छोड़ नहीं सकती थी । उसने फूलों से दीपक बुझा कर अपनी झुंझलाहट प्रकट की और वह निर्विघ्न क्रिया में प्रवृत्त रही । प्रियतमे पुरुषायितलाघवं किमपि पश्यति वक्रितकन्धरम् । असहया रतिमुज्झितुमन्यया गृहमणिः शमितः कुसुमैहिया ॥ ७६० श्रृंगार की यह व्यंजना भी कम विलासी नहीं है । किसी कामिनी ने स्वयं पेड़ पर चढ कर पुष्पचयन करने की ठानी। उसने एक पांव भूमि पर और दूसरा निकट - तम शाखा पर रखा । वह इस मुद्रा में खड़ी थी कि नायक बहाना करके सहसा उसके नीचे झुक गया । नायिका की नाभि के अधोवर्ती भाग (योनि) को देखकर उसका काम दीप्त हो गया और वह 'ऊर्ध्वसुरत' के लिये तड़प उठा ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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