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________________ २६६ जैन संस्कृत महाकाव्य जाए तो विक्रम (बल-प्रयोग) अनावश्यक है । वास्तव में, शौर्य और बुद्धि एक मिथुन है । उन्हीं से सुराज्य प्रसूत होता है । अतः बलशाली विजिगीषु के लिये भी .उसी शत्रु के विरुद्ध प्रयाण करना उचित है, जिसे विजित करना सम्भव हो । बाह्य -सत्रुओं की अपेक्षा आन्तरिक शत्रु षड्पुि ) अधिक प्रबल तथा दुस्साध्य हैं । उन्हें वशीभूत किये बिना दिग्विजय मिरर्थक है"। विवादास्पद समस्याओं के न्यायपूर्ण समाधान तथा नीति के सम्यक् निर्धारण के लिये मन्त्रणा का महत्त्व स्वयंसिद्ध है। नयचन्द्र ने मन्त्रणा की गोपनीयता पर बहुत बल दिया है। उनके विधान में केवल एक मन्त्री के साथ मंत्रणा करना निरापद है । एकाधिक अमात्यों के साथ मंत्रणा एक साथ अनेक गाड़ियों पर सवारी करने के समान अव्यावहारिक तथा संकटजनक है। राजा को पहले स्वयं समस्या पर विचार 'करके मंत्री की सम्मति लेनी चाहिये । दोनों में सहमति होने पर उसके अनुसार आचरण किया जाए । यदि दोनों में मतभेद: हो, तो मंत्रणा के प्रकाश में राजा को अपने विचार में यथोचित परिवर्तन करना चाहिये। राज्य की नीति राजा तथा मन्त्री के सामूहिक विमर्श से निर्धारित की जाती "है परन्तु उसे कुशलता से क्रियान्वित करना मंत्रियों तथा राज्य के अन्य कार्यकरों पर निर्भर है। नयचन्द्र ने इस सम्बंध में बहुत मार्मिक तथा विवेक-सम्मत विधान किया है । मंत्रिपद पर विश्वस्त तथा परीक्षित व्यक्तियों की नियुक्ति ही राज्य के लिये 'हितकारी है । कुलक्रमागत मंत्रियों को छोड़कर नये मंत्रियों को साम्राज्य का भार सौंपना कच्चे घड़े में पानी रखने के समान मूर्खतापूर्ण है। पूर्व-दण्डित अथवा पूर्व'विरोधी पुरुष को पुनः प्रधानामात्य के पद पर प्रतिष्ठित करना 'मृत्युलेख' (डेथ वारंट) पर हस्ताक्षर करना है । वह गुप्त रूप से हृदय में वैरं सहेज कर रखता है 'और अवसर मिलते ही राजा को लील जाता है। राज्य के कार्मिकों की नयचन्द्र ने अत्यन्त कड़े शब्दों में निंदा की है। उसका निश्चित मत है कि राजा को अपने 'अनुजीवियों पर निरन्तर अंकुश रखना चाहिये। स्वामी को धोखा देकर घूस "आदि' से अपना पोषण करने वाले कर्मचारियों को खेत की स्वयम्भू घास की तरह तुरन्त उखाड़ कर फेंक देना चाहिए। प्रजा के लिये राजा माता के समान है और 'अनुजीविवर्ग माता की सौत के समान । उसके हाथ में प्रजा के शिशु को १७. वही, ८.७६, ८१-८३ तथा, उपायसाध्ये खलु कार्यबन्धे न विक्रम नीतिविदः स्तुवन्ति । ११:२१. १८. वही, ८.८४-८५ १६. विश्वस्तारिचयोऽप्यजित्वाऽन्तरंगशत्रूनतिमात्रशक्तीन् । वही, ८.३६ २०. वही, ८.६७-१०० २१. वही, ८.६६-१०२
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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