SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हम्मीरमहाकाव्य : नयचन्द्रसूरि २६५ भी मुख्य कथा से अधिक सम्बन्ध नहीं है। प्रथम खण्ड, एक प्रकार से, हम्मीरकथा की भूमिका है । इसीलिये निरन्तर तीन सर्गों का सेतु बांधने पर भी कथा-प्रवाह अवरुद्ध नहीं होता। वास्तव में, हम्मीरमहाकाव्य का कथानक व्यापक, अन्वितिपूर्ण तथा गतिशील है। महाकाव्य के ह्रासयुग में नयचन्द्र की यह बहुत बड़ी उपलब्धि है । संस्कृत के वैभव काल के काव्यों में भी ये गुण कम दिखाई देते हैं। हम्मीरमहाकाव्य में बिम्बित कवि का व्यक्तित्व नयचन्द्रसूरि ने काव्य के विविध प्रसंगों में अपने शास्त्र-विषयक ज्ञान का अच्छा परिचय दिया है, यद्यपि माघ की भाँति उसने काव्य को शास्त्रीय पाण्डित्य के प्रदर्शन का अखाड़ा नहीं बनाया है। नयचन्द्र में राजनीतिज्ञ, इतिहासकार तथा कामशास्त्र, व्याकरण, साहित्यशास्त्र आदि में निष्णात आचार्य का दुर्लभ समन्वय है.। . हम्मीरमहाकाव्य का प्रणेता राजनीति-पटु कवि है, किन्तु भारवि तथा माघ की तरह उसकी राजनैतिक विद्वत्ता अर्थशास्त्र, कामन्दक आदि से गृहीत कोरा सैद्धांतिक पाण्डित्य नहीं हैं। हम्मीरकाव्य में तीन शक्तियों, चार उपायों, छह गुणों की सामान्य चर्चा अवश्य है पर नयचन्द्र की राजनीति दैनन्दिन व्यवहार की राजनीति है, जो नवोदित राजा का पग-पग पर मार्गदर्शन करती है । इस दृष्टि से, युवक हम्मीर को दी गयी 'राज्य-शिक्षा' बहुत महत्त्वपूर्ण है। नयचन्द्र के अनुसार आचारवान् राजा राज्य की सुख-समृद्धि का आधार है । सन्मार्ग पर चलने से वह प्रजा के आदर का पात्र बनता है किन्तु उसका दुराचार राज्य की नींव को खोखला कर देता है । जो राजा सत्ता के नशे में पूज्य व्यक्तियों के प्रति शिष्टाचार को भूल जाता है, वह आग के समान है जो तनिक प्रमाद से सब कुछ हड़प लेती है। राजा को स्त्री तथा राज्यलक्ष्मी का कभी विश्वास नहीं करना चाहिये । चाहे अनुरक्त हों या विरक्त, दोनों अवस्थाओं में ये कष्टप्रद हैं । परन्तु राज्यलक्ष्मी विवेकशील शासक का आंचल नहीं छोड़ती। नीति की सफलता के लिये साम, दान आदि उपायों का प्रयोग आवश्यक है, किन्तु त्रिवर्ग की भाँति उन्हें भी क्रम से प्रयुक्त किया जाना चाहिये । प्रथम तीन के असफल होने पर ही 'दण्ड' का प्रयोग न्यायोचित है"। नयचन्द्र का आदर्श 'एकच्छत्र राज्य' है। देश में वर्तमान प्रतिद्वंद्वी राजा, आंगन के विषवृक्ष के समान है। उसका उच्छेद करना अनिवार्य है । पराक्रम राजा का प्रमुख अस्त्र है। अपनी शक्ति का प्रदर्शन न करने वाला राजा अपमान का भागी बनता है । परन्तु नीति यह है कि यदि उपाय (बुद्धि) से कार्य सिद्ध हो १५. वही, १.१०३, २.१,१०. ६.१० १६. वही, ८.७३-७८.
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy