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________________ सप्तसन्धानमहाकाव्य : मेघविजयगणि स्मिन् समभावे भवति प्रसरति रक्षःप्रमुः रक्षणकप्रवणः स्वविमानषी::... देहाभिमानः रहितः स्वमनुजमिते रामे स्वस्य मनुमन्वं विचारशक्तिः तस्माज्जातः स्वमनुजः स्वस्कर विचारणातः तेम मिते अनुमिते रामे आत्मानन्दभवे अमिथ्यामति निर्मलां दृढां बुद्धि चक्रे इति शेषः। श्लोकायमक से आच्छन्न निम्नोक्त प्रकार के पद्यों के भी पाठक से जब नानीं अर्थ करने की आकांक्षा की जाती है, तो वह सिर धुनने के अतिरिक्त क्या कर सकता नागाहत-विवाहेन तत्मणे सदृशः श्रियःः। नागाहत-विवाहेन तत्क्षणे सदृशः मियः ॥ ६,५४ 'भाषा सप्तसन्धान भाषायी खिलवाड़ है । काव्य को नाना अर्थों का बोधक बनाने की आतुरता के कारण कवि ने जिस पदावली का गुम्फन किया है, वह पाण्डित्य तथा रचना-कौशल की पराकाष्ठा है । सायास प्रयुक्त भाषा में जिस कृत्रिमता तथा कष्टसाध्यता का आ जाना स्वाभाविक है, सप्तसन्धान उससे भरपूर है। सप्तसन्धान सही अर्थ में क्लिष्ट तथा दुरूह है। सचमुच उस व्यक्ति के पाण्डित्य एवं चातुर्य पर आश्चर्य होता है, जिसने इतनी गर्भित भाषा का प्रयोग किया है जो एक साथ सातसात अर्थों को विवृत कर सके। भाषा की यह दुस्साध्यता काव्य का गुण भी है, दुर्गुण भी। जहाँ तक यह कवि के पाण्डित्य की परिचायक है, इसे, इस सीमित अर्थ में, गुण माना जा सकता है। किंतु जब यह भाषात्मक क्लिष्टता अर्थबोध में दुलंध्य बाधा बनती है तब कवि की विद्वता पाठक के लिए अभिशाप. बन जाती है। विविध अर्थों की प्राप्ति के लिए पद्यों का भिन्न-भिन्न प्रकार का अन्वय करने तथा सुपरिचित शब्दों के अकल्पनीय अर्थ खोजने में बापुरे पाठक को असह्य बौद्धिक यातना सहनी पड़ती है। परन्तु इस यातना से काव्य में छुटकारा नहीं क्योंकि भिन्न-भिन्न अन्वय, पदच्छेद तथा पदों से सम्भव-असम्भव अर्थ का सवन करके ही इसके सप्तसन्धानत्व की पूर्ति की जा सकती है । टीकाकार विजयामृतसूरि को धन्यवाद, जिन्होंने अपनी शास्त्रविशारदता तथा वहुश्रुतता से प्रत्येक पद्य के ऐसे अर्थ किये हैं जो सभी चरितनायकों पर घटित हो कर सप्तसन्धान की रचना-प्रक्रिया को चरितार्थ बनाते हैं। ये सभी अर्थ कवि को अभीष्ट थे अथवा नहीं, इसका निर्णय करना सम्भव नहीं है। एक-दो उदाहरणों से उक्त कथन की सार्थकता स्पष्ट हो जाएगी! सवितृतनये रामासक्ते हरेस्तनुजे मुजे प्रसरति परे दौत्येऽदित्याः सुता भयभंगुराः। श्रुतिगतमहानादा-वेगं जगुनिजमग्रज रणविरमणं लोभक्षोभाद्विभीषणकामतः ॥५.३७. रामायण के पात्रों के नामों तथा घटनाओं से परिपूर्ण इस पद्य में, रामपक्षीय अर्थ के अतिरिक्त जिनेश्वरों की कामविजय का वर्णन है । यह अर्थ निकालने के लिये
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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