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________________ २१२ जैन संस्कृत महाकाव्य प्रेरित है । मेघविजय की तूलिका ने इतिवृत्त के विभिन्न प्रसंगों में नदी, पर्वत, वसन्त, सूर्यास्त, प्रभात आदि के कुछ सुन्दर चित्र अंकित किये हैं । ये काव्य को रोचकता भी प्रदान करते हैं किन्तु सब मिलाकर मेघविजय का प्रकृतिचित्रण शास्त्रीय (एकेडेमिक) अधिक है। मेघविजय के अन्य दोनों महाकाव्यों की भांति दिग्विजयमहाकाव्य में भी प्रकृति-चित्रण का आधार बहुधा वक्रोक्ति है। प्रकृति-चित्रण की रही-सही स्वाभाविकता यहां समाप्त हो गयी है। प्रकृति के विभिन्न दृश्यों को रूपायित करने में कवि ने उक्ति-वैचित्र्य का आश्रय लिया है, किन्तु उसका कल्पनाकोश सीमित है। एक विषय का पुनः पुनः वर्णन करने से काव्य में पिष्टपेषण भी हुआ है और कवि को दूर की उड़ान भी भरनी पड़ी है । प्रभात तथा सूर्योदय के वर्णनों में, जो काव्य में पांचवें, नवें तथा बारहवें सर्गों में, तीन स्थलों पर, उपलब्ध हैं; प्रकृति-चित्रण की यह विशेषता मुखर है । इन तीनों वर्णनों में, कवि ने तारों के अस्त होने के कारण की खोज में अपनी कल्पना लुटाने में ही प्रकृति-चित्रण की सार्थकता मानी है। एक विषय का बार-बार निरूपण करने से इन वर्णनों में नवीनता का खेदजनक अभाव है। यहां कवि की अधिकतर कल्पनाएं दूरारूढ़ हैं, वे भले ही क्षणिक चमत्कार उत्पन्न करें। अरुणोदय से अन्धकार क्यों विलीन हो जाता है, इस सम्बन्ध में कवि की यह कल्पना अपनी क्लिष्टता के कारण उल्लेखनीय है । प्रातःकाल इन्द्र का वाहन, ऐरावत, उदयाचल पर अपना सिन्दूर से लाल सिर रगड़ता है। उसके मदा गण्डस्थल पर बैठे भौंरे घर्षण से बचने के लिये उड़ जाते हैं। ऐरावत के उत्पात के सम्भ्रम से डर कर अन्धकार अपनी समवर्णी भ्रमरावली के साथ ही कहीं छिप जाता है । हरिकरिवरः सिन्दूराक्तं शिरः समघर्षयत् कुलशिखरिणि प्राच्ये तस्मादिवारुणिमाश्रये । . मदजललल गश्रेण्या समं क्वचिदुधयौ तिमिरनिवहः सावर्थेनोद्भवद्भयसम्भ्रमात् ॥ ५.६२ तारों के अस्त होने का कारण ढूंढने के लिये मेघविजय ने और भी विचित्र कल्पनाएँ की हैं। नवें तथा बारहवें सर्ग में दूरारूढ़ कल्पनाओं की भरमार है । नवें सर्ग में बिम्बवैविध्य के अभाव के कारण पिष्टपेषण भी अधिक हुआ है। कवि की कल्पना है कि प्रातःकाल तेज हवा के कारण आकाश का वृक्ष डगमगाने लगता है जिससे उसके तारे रूपी जीर्ण पत्ते झड़ जाते हैं (६.६०) । पति के वियोग के कारण रात्रि के समय आकाशलक्ष्मी के हृदय में, तारों के रूप में, जो अनगिनत छिद्र दिखाई
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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