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________________ म्यूलभद्रगुणमालाचरित्र : सूरचन्द्र २०३ इसका श्रेय उसके अप्रस्तुतों के अक्षय कोष को है । _स्थूलभद्रगुणमाला की भाषा सरलता के सौन्दर्य से भूषित है। भरतबाहुबलिमहाकाव्य जैसा भाषा-सौष्ठव तो यहां नहीं मिलता किन्तु इसमें प्रांजलता बराबर बनी रहती है । मध्ययुगीन महाकाव्यों की अन्य प्रवृत्तियों को प्राय: यथावत् ग्रहण करके भी सूरचंद्र ने अपनी भाषा को अलंकृति तथा क्लिष्टता से आच्छादित नहीं किया है। उसका झुकाव सरल भाषा की ओर अधिक रहा है। काव्य को सुबोध बनाने के लिए ही उसने काव्य में कहीं-कहीं लोकभाषा की संस्कृत छाया मात्र प्रस्तुत कर दी है, जो संस्कृत भाषा की प्रकृति के प्रतिकूल है किन्तु लोक में प्रचलित होने के कारण सर्वविदित हैं । 'राज्ञोऽस्ति यः कोपः स सर्व उत्तरिष्यति (७.७६)-राजा का जो क्रोध है, वह सब उतर जाएगा, तातवाती न पृष्टवान् (७.१६०)-पिता की बात नहीं पूछी, अवनीरमणोऽस्माकमूवं कोषं करिष्यति (७.१६८)-राजा हमारे ऊपर क्रोध करेगा, सर्वमेतत् खादितुं नाथ धावति (६.१२४)-यह सब खाने को दौड़ता है, एकस्य पृष्ठे ..."किं पतिता जडे (१०.७)-एक ही के पीछे क्यों पड़ी है ? आतपो निपतति (१२.३)-धूप पड़ती है आदि इसी प्रकार के प्रयोग हैं । छप्पा (३.२५), फुक (३.७४), मिशाण-ध्वज (३.१३८), छन्नक: (३.१३८), कान्दविक-कंदोई (३.१४५), जटित्त्वा तालकानि, छलसि (६.८६), टिंककूपकः (१२.८०) लट्टा-लटें (१०.१३२), कोट्ट, खाला, जंजाल,गविधा, गुलाल तथा क्टका, लपश्री, कांजिका, रोट्टक, पर्पट, पूरिका, लड्डुक (१२.१२५-१२६) आदि देशी शब्दों का उदारतापूर्वक प्रयोग भी उपर्युक्त भावना से प्रेरित है। किन्तु शिरोन्नताः (२.६३), यदैषास्मि सात्स्यामि तव कामितम् (२.१३५), मुनिराज्ञः (१५.११८) निषेधन्ती (१५.१०७), धर्मपदैव (१६.१६३), आदि अपाणिनीय प्रयोग कधि के प्रमाद के सूचक हैं। यह स्थूलभद्रगुणमाला की भाषा का एक पक्ष है । सुबोधता के अतिरिक्त सूरचंद्र की भाषा की मुख्य विशेषता यह है कि वह सदैव भावों की अनुगामिनी है। काव्य में स्थितियों का वैविध्य तो अधिक नहीं है किंतु उसमें उदात्त-गम्भीर तथा भव्याभव्य जो भाव हैं, उसकी भाषा उन सबको यथोचित पदावली में व्यक्त करने में समर्थ है । स्थूलभद्र को देखकर मूछित हुई कोश्या की स्थिति के वर्णन तथा उसकी सखियों की चिंताकुल प्रतिक्रिया के निरूपण में प्रयुक्त भाषा उनकी मानसिक विकलता को बिम्बित करती है । उसके मूछित होने पर वे विषाद में डूब जाती हैं, और होश में आते ही वे हर्ष से पुलकित हो जाती हैं (२.११७, ११६,१२३) । स्थूलभद्र के साधुत्व स्वीकार करने से कोश्या के तरुण हृदय की अभिलाषाएं अधूरी रह जाती हैं । उस पर अनभ्र वज्रपात हुआ। उसके विरह के चित्रण में विप्रलम्भ, अपने आवेग के कारण, करुणरस वे बहुत निकट पहुंच गया है। उसकी
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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