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________________ २०२ जैन संस्कृत महाकाव्य अर्जित करना तथा उसके द्वारा जीवन को सार्थक बनाना है । कवि का विश्वास है कि महापुरुषों के गुणों का स्मरण जगत् की विक्रियाओं को दूर करने का अमोघ मन्त्र है । " महात्माओं के महात्मा (१.३७) की गुणावली के इस निरूपण ने सूरचन्द्र की काव्य-रचना को बहुत तंग घेरे में परिबद्ध कर दिया है। उसके काव्यशास्त्र में रस, भाव, भाषा, शैली आदि काव्यतत्त्वों की उपयोगिता नगण्य है ।" फलतः स्थूलभद्रगुणमाला में सूरचन्द्र का जो रूप व्यक्त हुआ है वह कवि, कथावाचक तथा प्रबन्धत्व से निरपेक्ष तुक्कड़ का अजीब रूप है। जहां 'पुनरेको विशेषः स श्रूयतां सज्जना इह' (६.१) तथा 'इदं महीय आश्चर्य श्रवणीयं निशम्यताम्' (६.४) जैसी पंक्तियां लेखक को कथाकार की श्रेणी में खड़ा करती हैं, वहां काव्य में 'उपमानानि चन्द्रस्य बहूनि सन्ति यत्कृतात् । पार्श्वनाथस्तवनात्तानि ज्ञेयानि विदुषां वरः' (११.३०) आदि हास्यास्पद पद्य प्रबन्धत्व से उसकी घोर उदासीनता व्यक्त करते हैं । वर्णनों के बीच प्रश्नोत्तर-शंसी भी प्रबन्धस्व की हितैषी नहीं (उष्णागमेऽधिका निद्रा समेति हेतुरत्र कः-१४.१३५) । इस प्रकार की विश्रृंखल वर्णन-पद्धति शैली में शिथिलता को जन्म देती है जो प्रबन्धकाव्य की सुमठित तथा चुस्त शैली के अनुकूल नहीं है । सूरचन्द्र की शैली की प्रमुख विशेषता (?) उसके वर्णनों का बोरेवार क्वेिकहीन विस्तार है। प्रत्येक विषय का क्रमबद्ध सविस्तार वर्णन करना उसकी प्रिय शैली है। सूरचन्द्र जहां बैठता है, वहीं पद्मासन बांध कर बैठ जाता है और जब तक विषय के हर सम्भव पक्ष के हर संभव'डिटेल' का मन भर कर वर्णन नहीं कर लेता, भागे बढ़ने का नाम नहीं लेता ! पाटलिपुत्र का चित्रण करते समय उसके दुर्ग, परकोटे, परिखा, हाट, उद्यान आदि का क्रमवार वर्णन करना उसके लिए अनिवार्य है । दान देने के लिए उठे हाथ की सामान्य मंगिमा पर वह आठ पद्य न्यौछावर कर सकता है (६.११२-११६) । मेघागम पर सागर की गर्जना तथा दान देते समय अंगुलियों के मिलने का कारण ढूंढने में भी उसने कृपणता नहीं की (१०.१४५-१४८, ६.१२२-१२६) । सौन्दर्य तथा प्रकृति के निर्बाध वर्णन ने किस प्रकार काव्य का बहुलांश हड़प लिया है, इसका संकेत पहले किया जा चुका है। इसका संचित निष्कर्ष यह है कि स्थूलभद्रगुणमाला की शैली में संयम अथवा संतुलन का खेदजनक अभाव है । फलतः वह प्रवाह तथा गठीलेपन से शून्य है। फिर भी यदि सूरचन्द्र का काव्य नीरसता से बच सका है, ३२. संसारं सफलीकर्तुं गुणाः केचन गुम्फिताः। १७.१७४ गुणान् गुणवतो गीत्वा करोति सफलं जनुः । १७.१७८ ३३. भावभेदरसान् पूर्णाः परीक्षन्ते परीक्षकाः। मादृशा अल्पधीमन्तो न वक्तुं तान् विजानते ॥१७.१८८
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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