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________________ १६४ जैन संस्कृत महाकाव्य विषयभोग में लीन स्थूलभद्र मन्त्रिपद का वैभव ठुकराकर निरीह साधुत्व से जीवन को सफल बनाने का संकल्प करता है । पतिता कोश्या भी श्राविका के संयम के द्वारा साध्वी की भांति मान्यता प्राप्त करती है। किन्तु सामूहिक रूप में भी शान्तरस, काव्य में, शृंगार की तीव्रता को मन्द नहीं कर सकता । अपनी विषयासक्ति की पृष्ठभूमि में, पिता के वध का समाचार पाकर, स्थूलभद्र का. मन आत्मग्लानि से भर जाता है । उसे सुख-सम्पदा, वैभव-भोग, वस्तुतः समूचा जीवन और जगत् भंगुर एवं प्रवंचनापूर्ण प्रतीत होने लगता है । प्रवज्या में ही वह सच्चा सुख देखता है । उसकी यह मनोभूमि शान्त के कल्पतरु को जन्म देती है। प्रमदासंपदानन्दपदराज्यधरादिकम् । यद्यत् संदृश्यते दृष्टया तत्सर्व भंगुरं भवेत् ॥ ८.१३ पुत्रभ्रातृमहामंत्रयन्त्रमन्त्रनृपादिकं । संसारे शरणं नांगवतामेषां चांगिनः॥ ८.१६ एवमेकोऽप्यनेके वा न त्राणं कोऽपि के प्रति । ततो निर्ममभान जगदेतत्समाषय ॥ ८.२६ प्रकृति-चित्रण ___ काव्य के अनुपातहीन विस्तृत प्रकृति-वर्णन से सूरचन्द्र के प्रकृति के प्रति दृष्टिकोण का यथेष्ट परिचय मिलता है । स्थूलभद्रगुणमाला के प्रकृति-चित्रण को ऋतुवर्णन कहना अधिक उपयुक्त होगा क्योंकि इसमें ऋतुवर्णन का ही प्राधान्य है । इसके अतिरिक्त काव्य में प्रकृति-वर्णन के नाम पर केवल प्रभात का चित्रण किया गया है। प्रकृति-चित्रण में सूरचन्द्र बहुधा परम्परागत प्रणाली के अनुगामी हैं । चिरप्रतिष्ठित परम्परा की अवहेलना करना सम्भव भी नहीं था। उसके प्रकृति-चित्रण की विशेषता -यदि इसे विशेषता कहा जाए-यह है कि उसने अपने अप्रस्तुत-विधान-कौशल से ऋतुओं के हर सम्भव तथा कल्पनीय-अकल्पनीय उपकरण के व्यापक चित्रण के अतिरिक्त उनमें होने वाले पों का भी अनिवार्यतः निरूपण किया है । ये वर्णन कवि की काव्य-प्रतिभा के साक्षी हैं, किन्तु सन्तुलन अथवा अनुपात का उसे विवेक नहीं है। अन्य वर्ण्य विषयों की भांति प्रकृति के सूक्ष्मतम तत्त्व का चित्रण करने के लिए वह अनायास आठ-दस अप्रस्तुत जुटा सकता है । वास्तविकता तो यह है कि वह जब तक प्रकृति के प्रत्येक उपकरण से सम्बन्धित सब कुछ कहने योग्य नहीं कह देता, आगे बढ़ने का नाम नहीं लेता। इसलिये मात्र विस्तार के कारण इनमें पिष्टपेषण भी हुवा है और पाठक के धैर्य की विकट परीक्षा भी! २२४ पद्यों में पावस का सांगोप्रांग वर्णन करने के पश्चात् कवि का यह कथन
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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