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________________ स्थूलभद्रगुणमालाचरित्र : सूरचन्द्र १९३ द्वारा वह प्रिय के कामभाव को उत्तेजित करके अनुभावों के माध्यम से अपनी प्रणयलालसा की अभिव्यक्ति करती है । भावों अथवा विभावों का यह पृथक् निरूपण शृंगार की निष्पत्ति का पर्याय नहीं है। किन्तु ये भाव-विभाव (२.२२---४२) कोश्या की कामातुरता को व्यक्त करने में समर्थ हैं । चकंपे कामिनीकायः कामावेशाच्च किंचन । मन्ये मन्त्रिसुतं भेत्तुं कुन्तं तोलयते स्मरः ॥ ५.२६ कोश्याविष्कुर्वती नाभि प्रति प्रियमनंगतः । मन्ये मद्यस्य चषकमिवोन्मादकमादरात् ॥ ५.२६ कोश्याश्लथत् नीवीं स्वां स्नेहान्तःपूरणादिव । भर्तुर्मध्यमृगेन्द्रं सा च्छोटयतीव केलये ॥ ५.३० दर्श दर्श प्रियं प्रेम्णा कोश्या रोमांचिताभवत् । केकी कलापवानम्भोवाहमिव प्रमोदतः ॥ ५.३३ ये कामचेष्टाएं उन दो मदिर हृदयों के मिलन की भूमिका निर्मित करती हैं । स्थूलभद्र कोश्या को गोद में भर कर आनन्द के सागर में डूब जाता है। एकान्तस्थानमालोक्य पाणि प्रसार्य घीसखः । कोश्यामुत्संगमानीयास्थापयत् प्रेमपूरितः॥ ५.४५.. . ऐरावत इवामर्त्यलतामात्मीयकेलये। मराल इव नालीकमृणालीममलां श्रिये ॥ ४.४६ सम्पन्नं यत्तयोयूनोस्सुखं सांसारिकं मिथः । वाग्निर्याति तद्वक्तुं तस्मान्मुष्टिमहीयसी ॥ ५.५३ परन्तु स्थूलभद्रगुणमाला में श्रृंगार के उभय पक्षों का यह विस्तृत चित्रण, वैराग्यशील कवि की वृत्ति का द्योतक नहीं है । जैन काव्यों की यह विरोधाभासात्मक स्थिति है कि उनमें साहित्यशास्त्र के विधान तथा कथावस्तु की प्रकृति के अनुरूप शृंगार का तल्लीनता से निरूपण किया जाता है किन्तु बाद में जी भर कर; नारी की निन्दा की जाती है । शृंगार की विभिन्न स्थितियों के कुशल चितेरे सूरचन्द्र की वैराग्यमयी भाषा में भी नारी 'दुर्गन्धिकृमिसंकुल' तथा 'निष्ठीवनशराव', (थूकदान) है । पुरुष के जीवन की सार्थकता इस भुजंगी से बचने में है ।५ शृंगार, तथा उसकी आलम्बनभूत नारी के प्रति सूरचन्द्र के दृष्टिकोण को समझने के लिए.. उपर्युक्त भावों को याद रखना आवश्यक है। स्थूलभद्रगुणमाला में शृंगार का पर्यवसान शान्तरस में हुआ है । अथाह . १५. स्थूलभद्रगुणमाला, १७.१४६–१५२
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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