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________________ स्थूलभद्रगुणमालाचरित्र : सूरचन्द्र १८७ अपना शाखारूप सम्बन्ध यद्यपि जिनभद्रसूरि से स्थापित किया है, किन्तु अन्य साधनों से ज्ञात होता है कि वे जिनदत्तसूरि की परम्परा में थे। काव्य में बृहत् खरतरगच्छ के आचार्यों का विवरण भी जिनदत्तसूरि से आरम्भ होता है (१७.२१८) । इन गौरवशाली आचार्यों की परम्परा में, जिनमें कुछ ने अनुपम संयमशील व्यक्तित्व के कारण मुगल सम्राट अकबर तथा जहांगीर से 'युगप्रधान' आदि महनीय उपाधियां प्राप्त की थीं तथा कुछ अन्यों ने धार्मिक तथा साहित्यिक कार्यकलाप से शासन तथा साहित्य के उन्नयन में श्लाघ्य योग दिया था, वाचकं चारित्रोदय उपदेशनिपुण वाग्मी थे । सूरचन्द्र इन्हीं चारित्रोदय के चरण-कमलों के भुंग-थे जिसका सीधा अर्थ यह है कि चारित्रोदय सूरचन्द्र के विद्यागुरु थे। पालम की भांति सूरचन्द्र ने दीक्षा वाचक वीरकलश से ग्रहण की थी। उन्हें संघ में प्रतिष्ठित करने का श्रेय भी वीरकलश को है। ... सूरचन्द्र विश्रुत विद्वान् तथा प्रतिभासम्पन्न कवि थे। पंचतीर्थस्तव उनकी विद्वतापूर्ण प्रौढ़ रचना है, जिसमें उन्होंने अपने चित्रकाव्यकौशल- का परिचय दिया. है। संस्कृत के अतिरिक्त राजस्थानी में भी उनकी कई कृतियां उपलब्ध हैं। उनकी राजस्थानी रचना श्रृंगाररासमाला सम्वत्.१६५६ (सन् १६०२) में लिखी गयी थी। यह सूरचन्द्र की प्रथम महत्त्वपूर्ण कृति प्रतीत होती है.। यदि यह.अनुमान सत्य है. तो उनके जन्म तथा दीक्षा का समय सोलहवीं शताब्दी ईस्वी का अन्तिम चरण माना जा सकता है। जैन तत्त्वसार का रचनाकाल सम्वत् १६७६ (सन् १६२२) सुनिश्चित है । स्थूलभद्रगुणमाला सूरचन्द्र की सबसे प्रसिद्ध कृति है । पुष्पिका के अनुसार इसकी रचना आचार्य जिनराजसूरि.के विजयराज्य में (सन् १६१८-२३) सम्पन्न हुई, थी । घाणेराव भण्डार में स्थित काव्य की पूर्वोक्त प्रति की प्रशस्ति से ज्ञात होता हैं २. श्री अगरचन्द नाहटा : मुगप्रधान जिनदत्तसूरि, पृ. ६६.. ३. चारित्रोदयनामानो वाचकाः प्रदिदीपिरे । स्थूलभद्रगुणमाला, १७.२६६ येषां व्याख्योल्लसद्रागध्वनिप्रीणितमानसाः। म्लेच्छा अपि दयाधर्म श्राद्धा इव प्रपेदिरे। वहीं. १७.२६७ . येषां पादद्वयाम्भोजे मया भंगायितं चिरात् । वही. १७.२६६ ४. एषां विद्यासुसंविग्नाः श्रीवीरकलसाह्वयाः। .. वाचका : सिद्धसिद्धान्तसंविदो गुणसागराः ॥१७.२७० यद्धस्तदीक्षितोऽस्म्येष पुनः श्रीपवल्लभः । द्वावप्यावां समध्याप्य यः कृती संघपूजितौ ॥१७.२७१ ५. इति श्रीबृहत्खरतरगच्छे श्रीजिनराजसूरिविजयिराज्ये श्रीजिनसागरसूरियौव राज्ये........श्रीवीरकलशगणिशिष्यसूरचन्द्रविरचिते श्री स्थूलभद्रस्य गुणमालानामनि चरिते........
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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