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________________ १८६ जैन संस्कृत महाकाव्य म प्रणयिनी के सच्चारित्र्य अंगीकार करने के वर्णन के द्वारा प्रकारान्तर से, जैन धर्म की महिमा की प्रतिष्ठा करना है । पर इसमें महाकाव्य के स्वरूपविधायक आन्तरिक तत्त्वों का भी अनुवर्तन किया गया है । प्रस्तुत काव्य काम की तुलना में धर्म की शाश्वत महत्ता की स्वीकृति है । इसकी कथावस्तु के स्रोत जैन आगम तथा अन्य उपजीव्य प्रबन्ध हैं । यह पूर्ववर्ती कवियों के फुटकर गीतों, छन्दों का विषय बन चुकी थी' । अतः काव्य का कथानक निस्संकोच 'प्रख्योत' माना जा सकता है। स्थूलभद्रगुणमाला का अंगीरस श्रृंगार है। श्रृंगार में भी विप्रलम्भ की प्रधानता है । शृंगार का पर्यवसान शान्तरस में हुआ है। स्थूलभद्र धीरोदात्त कोटि का नायक है किन्तु पितृवध के पश्चात् उसकी संवेगोत्पति तथा प्रव्रज्या उसकी धीरप्रशान्तता को रेखांकित करती हैं । शिथिलता तथा च्युतसंस्कृति के कारण स्थूलभद्रगुणमाला की भाषा' को उदात्त अथवा प्रौढ़ नहीं कहा जा सकता किन्तु वह प्रांजलता से शून्य नहीं है । काव्य तथा सर्गो का नामकरण, वस्तुव्यापारवर्णन, मंगलाचरण आदि भी शास्त्र के अनुकूल हैं । छन्दों के प्रयोग में सूरचन्द्र ने पूर्ण स्वतन्त्रता से काम लिया है । इसमें, आदि से अन्त तक केवल अनुष्टुप् का प्रयोग किया गया है । स्थूलभद्रगुणमाला का स्वरूप स्थूलभद्रगुणमाला के कथानक की परिणति सान्तरस में हुई है जिसके फलस्वरूप पतिता वेश्या भी श्राविका का संयमपूर्ण जीवन स्वीकार करती है। स्थूलभद्र के. संवेग तथा तज्जन्य गुणावली का तो काव्य में विस्तृत निरूपण किया गया है। ये पौरा-णिक काव्य की विशेषताएं हैं परन्तु काव्य में इनका स्थान अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हैं 1 स्थूलभद्रगुणमाला का वातावरण तथा प्रकृति पौराणिक रचना के अनुकूल नहीं है । इसमें प्रासंगिक, अधिकतर अप्रासंगिक, वर्णनों का ऐसा जाल बिछा है कि कथा का तन्तु यदा-कदा ही दिखाई देता है। जिस प्रकार कथावस्तु को निरूपित किया गया है उससे स्पष्ट है कि स्थूलभद्रगुणमाला में वर्ण्य विषय की अपेक्षा वर्णन-प्रकार अधिक महत्त्वशाली है । यह शास्त्रीय काव्य की प्रबल प्रवृत्ति है । अप्रस्तुतों का अजस्र विधान, मनोरागों का सरस चित्रण, चरित्रगत नवीनता, प्रकृतिचित्रण का कौशल - ये कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो शास्त्रीय शैली के महाकव्यों में ही दृष्टिगत होती हैं । कविपरिचय तथा रचनाकाल स्थूलभद्रगुणमाला की घाणेराव - प्रति के अन्तिम सर्ग तथा विभिन्न सर्गों की पुष्पिका में सूरचन्द्र का पर्याप्त परिचय उपलब्ध है । जैन तत्त्वसार में सूरचन्द्र ने १. वर्णश्चागमे बद्धः प्रबन्धे च महात्मनाम् । itrarfararat क्रियमाणस्तु दृश्यते ॥ स्थूलभद्रगुणमाला, १७.१८१
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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