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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य इन्द्रनीलमणियों की छत पर सजाए गये दीपक हों । जुगनू विरहिणियों की वियोगाग्नि के स्फुलिंग प्रतीत होते हैं । तारों के मोतियों से भरा आकाश ऐसा शोभित हुआ मानों चन्द्रमा के स्वागत के लिये रजनी - नायिका के सिर पर रखा हुआ वैडूर्यमणियों का थाल हो । सूर्यास्त के पश्चात् अन्धकार चोर की तरह दिशाओं में फैल गया । आकाशसौधे रजनीश्वरस्य महेन्द्रनीलाश्मनिबद्धपीठे । प्रादुर्बभूवुः परितो दिगंतांस्ताराः प्रदीपा इव वासरान्ते ॥ वियोगिनीनां विरहानलस्य निःश्वासधूमावलिधू प्रधाम्नः । स्फुटाः स्फुलिंगा इव पुस्फुरुश्च खद्योतसंघातमिषात्तदानीम् ॥ नमःस्थ तारकमौक्तिकाढ्यं विभावरी भीरुशिरोविराजि । राजागते मंगलसंप्रवृत्त्यै वैडूर्यकस्थालमिव व्यभासीत् ॥ अस्तं प्रयाते किल चक्रबन्धावनुद्यते राजनि तेजसाढ्ये । १७२ चौरैरिव व्याहतदृष्टिचारैस्तमोभरैर्व्यानशिरे दिगंताः ॥ ८. ८-११ भ. बा. महाकाव्य के प्रकृतिचित्रण की विशेषता यह है कि उसमें प्रकृति ने बहुधा मानव की भूमिका का सफल निर्वाह किया है। काव्य में मानव तथा प्रकृति का इतना घनिष्ठ सामंजस्य है कि यह कहना असम्भव हो जाता है कि कहां मानव-वर्णन समाप्त होता है और कहां प्रकृति-वर्णन प्रारम्भ होता है । पुण्यकुशल ने प्रकृति पर मानव चेतना को इस कौशल से आरोपित किया है और वह इस सहजता से मानवीय भावनाओं से अनुप्राणित है कि पाठक क्षण भर के लिए भूल जाता है कि वह प्रकृति का वर्णन पढ़ रहा है। ऋतु-वर्णन, सूर्यास्त तथा चन्द्रोदय के अन्तर्गत तो प्रकृति में मानव हृदय का स्पन्दन सबसे अधिक सुनाई पड़ता है । सन्ध्या-वर्णन में दिन को स्वामिभक्त अनुचर के रूप में प्रस्तुत किया गया है । जिस प्रकार निष्ठावान् सेवक को स्वामी के मरने के पश्चात् जीवन नीरस तथा आकर्षण - शून्य प्रतीत होता है, उसी प्रकार सूर्य के अस्त होने पर उसका अनुयायी दिन सन्ध्या की चिता में जल कर मर गया है । अंधकार के व्याज से चिता का धुआं चारों ओर फैल रहा है । अस्तंगते भानुमति प्रभौ स्वे सन्ध्याचिताहव्यवहे दिनेन । धूमैरिव ध्वान्तभरैः प्रसत्रे निजं वपुर्भस्ममयं वितेने ॥ ८.७ सूर्य के छिपते ही दिन समाप्त हो जाता है और धीरे-धीरे अंधकार फैलने लगता है, यह सर्वविदित अतिसामान्य तथ्य समासोक्ति का स्पर्श पाकर कविकल्पनाजन्य रोचकता से परिपूर्ण हो गया है । चन्द्रोदय के प्रसंग की यह समासोक्ति, चन्द्रमा पर कामी की चेष्टाओं के
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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