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________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्य : पुण्यकुशल के आलम्बन पक्ष की उपेक्षा नहीं की। उसकी कुशल तूलिका ने प्रकृति के सहज रुप को भी अपने स्पर्श से दीपित कर दिया है, यद्यपि ऐसे वर्णन काव्य में अधिक नहीं हैं। वर्षाकाल की मलिनता के पश्चात् शरत में चारों ओर स्वच्छता का साम्राज्य छा जाता है । कमल विकसित होने लगते हैं, ईख रस से भर जाता है, मानस सें लौटे हुए हंसों का मधुर कलरव सुनाई पड़ता है और ओस के कणों से युक्त शीतल पवन के झकोरों से दांत किटकिटाने लगते हैं। काव्य में ऋतु-वर्णन के अन्तर्गत शरत् के इन तत्त्वों का मनोरम चित्रण हुआ है। शरद्यवापासमियष्टिविकासमायम्जवनानि चासन् । मरालबालवधिरे' प्रमोदाः कि शारदो नः समयो हिनदग ? १.४६ बहन्नवश्यायकणान् कृशानुध्वजाधिकश्यामतनुश्चचार । मुहुर्मुहुर्वादितदन्तवीणः शैत्यप्रवीणः शिशिराशुगोऽयं ॥ १८.५३ भ. बा. महाकाव्य में प्रकृति के आलम्बनपक्ष की ओर भले ही अधिक ध्यान न दिया गया हो, उसके आलंकारिक वर्णन में कवि ने विशेष रुचि ली है। प्रकृति के अलंकृत वर्णन के अन्तर्गत कविगण अधिकतर दूरारूढ़ कल्पनाएं करते हैं अथवा यमक के जाल में फंस जाते हैं । शरद्-वर्णन में यमक का निर्बाध प्रयोग पुण्यकुशल ने भी किया है, किन्तु उसका उद्देश्य इसके द्वारा शरत् का सहज-अलंकृत चित्र अंकित करना है। इसलिये उसकी प्रकृति यमक के गोरखधन्धे में फंस कर भी बराबर काव्य की रंगभूमि में बनी रहती है । यमक के इस महीन आवरण के नीचे प्रकृति का सहज रूप स्पष्ट दिखाई देता है। अहनि चित्तमुपास्यति कामिनां कमलिनीमलिनीकुलसश्रिताम् । जलदमुक्तया निशि निर्मल सितरचं तरुचञ्चिरचं पुनः॥ नप ! तनूभवति क्रमतोऽधुना वनबलं नवलम्भितसस्यकम् । स्फुटविलोकयमानतटान्तरं प्रमदयन् यदयन्नलिनीदलः॥ ॥१०-११ पुण्यकुशल के अन्य प्रकृति-वर्णन वे हैं, जो अप्रस्तुतों पर आधारित हैं। इस सन्दर्भ में उसने अधिकतर उत्प्रेक्षा तथा उपमा का आश्रय लिया है, जिससे उसका प्रकृति-वर्णन कल्पना से तरलित हो गया है और वर्ण्य विषय में हृदयंगमता आई है। इस दृष्टि से आठवें सर्ग का रात्रिवर्णन बहुत. सुन्दर हैं क्योंकि उसमें प्रयुक्त अप्रस्तुत बहुत मामिक हैं । नीले आकाश में छिटके हुए तारे ऐसे लगते हैं मानों महल की २९. काव्य में प्रकृति के आलम्बनपक्ष के चित्रण के अन्य स्थलों के लिये देखिये १३:४७,१८.३६,३६,४३,५५ ३०. भ.बा. महाकाव्य, १८.२६,२८,२९,३८ तथा ८.१५
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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