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________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्य : पुण्यकुशल १६५ माघ तथा पुण्यकुशल दोनों ने नायक की सेवा में अवतीर्ण छह परम्परागत ऋतुओं का वर्णन किया है । माघ का पूरा ऋतुवर्णन (षष्ठ सर्ग) यमक से आच्छादित है, पुण्यकुशल ने केवल शरत् के वर्णन में यमक का आश्रय लिया है, वह भी षड्-ऋतुवर्णन से पृथक्, पंचम सर्ग में । पुण्यकुशल का यमक अर्थबोध में अधिक बाधक नहीं है। माघकाव्य के समान भ. बा. महाकाव्य के दो सर्गों में युद्ध का वर्णन किया गया है । भरत-वाहुबलि की सेनाओं के युद्ध का वर्णन पुण्यकुशल के किसी भी उपजीव्य काव्य में उपलब्ध नहीं है, इसका संकेत पहले किया जा चुका है। भ. बा. महाकाव्य का यह सैन्ययुद्ध (सर्ग १५) निश्चित रूप से माघ के अठारहवें सर्ग में वर्णित श्रीकृष्ण और शिशुपाल की सेनाओं के घनघोर युद्ध से प्रेरित है। पुण्यकुशल के चौदहवें तथा पन्द्रहवें सर्ग चरितकाव्यों के युद्धवातावरण का आभास देते हैं। इनमें सैनिकों के तैपार होने, योद्धाओं की वीरता का परिचय, वीरों के सिंहनाद, कबन्धों के नर्तन, हाथियों के चिंघाईने आदि रूढ़ियों का तत्परता से पालन किया गया है। "इन रूढ़ियों की परम्परा माघकाव्य से प्रारम्भ होकर चरितकाव्यों से होती हुई हिन्दी के वीरगाथात्मक काव्यों (तथा संस्कृत के परवर्ती महाकाव्यों) तक आती दिखाई देती है"२९ । माघ तो उन्नीसवें सर्ग में चित्रकाव्य के व्यूह में फंस गये हैं, पुण्यकुशल ने सेनाओं के युद्ध का अतीव रोचक वर्णन किया है । यह कहना अत्युक्ति न होगा कि यह सर्ग युद्ध की अपेक्षा कवि की काव्यशक्ति तथा कल्पना की कमनीयता को अधिक व्यक्त करता है। सम्भवतः इस सर्ग के द्वारा पुण्यकुशल ने माघ के चित्रकाव्य का विरोधी ध्रुव उपस्थित किया है । भरत और बाहुबलि का द्वन्द्वयुद्ध यद्यपि त्रिषष्टिशालकापुरुषचरित का अनुगामी है, किन्तु उसकी प्रेरणा पुण्यकुशल को भारवि के किरातार्जुनीय तथा शिशुपालवध में दणित द्वन्द्व-युद्धों से भी मिली होगी। छठे सर्ग का पुरसुन्दरियों का वर्णन शिशुपालवध के तेरहवें सर्ग में कृष्ण को देखने को लालायित स्त्रियों के वर्णन से प्रभावित प्रतीत होता है, यद्यपि दोनों का लक्ष्य भिन्न है। कदाचित् कालिदास के वर्णन भी कवि के अन्तर्मन में रहे हों। शिशुपालवध तथा भ. बा. महाकाव्य दोनों का केन्द्र-बिन्दु युद्ध है। फलतः दोनों काव्यों में वीररस की प्रधानता है किंतु श्रृंगार का चित्रण कुछ इस प्रकार किया गया है कि वह अंगीरस पर हावी हो गया है । माघ का काव्य अपने स्वाभाविक अन्त - शिशुपाल के वध - तक पहुंच कर ही विरत हुआ है, भ. बा. महाकाव्य में युद्ध का उन्नयन होता है। इतना होने पर भी पुण्यकुशल ने माघ की गाढ़बन्ध शैली, भाषात्मक २०. भ. बा महाकाव्य, १८.१-५७ ।। २१. डॉ० भोलाशंकर ध्यास : संस्कृत-कवि-दर्शन, बनारस, १९५५ पृ० १७८
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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