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________________ १६४ जैन संस्कृत महाकाव्य गुण्ठित संकेत किया है तो दूसरी ओर माघ की परम्परा का निर्वाह किया है । माघकाव्य के प्रथम सर्ग में नारद के आगमन का वर्णन है। पुण्यकुशल के काव्य का प्रारम्भ दूतप्रेषण से होता है । भ. बा. महाकाव्य का कथानक मूलतः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित से गृहीत है, किन्तु उसके प्रस्तुतीकरण में पुण्यकुशल ने माघ के योजनाक्रम का अनुसरण किया है । इसीलिये माघकाव्य की तरह भ.बा. महाकाव्य में सेनाप्रयाण के अन्तर्गत उसके सज्जीकरण, पड़ाव, पुनः प्रस्थान, सैनिक युगलों के वनविहार, जलकेलि, सुरतक्रीड़ा, सूर्यास्त, चन्द्रोदय, प्रभात तथा सूर्योदय के वर्णन मिलते हैं । अन्तर यह है कि माघ के वर्णन परिमाण में अधिक विस्तृत तथा प्रौढ़ता से परिपूर्ण हैं । जैन कवि के पास कल्पनाओं का वह कोष कहीं, जो माघ में मिलता है ? पुण्यकुशल ने सैनिक युगलों की विलास - चेष्टाओं के अन्तर्गत मुग्धा, खण्डिता, प्रौढ़ा, कलहान्तरिता आदि विभिन्न नायिका - मेदों का माघ की भाँति आग्रहपूर्वक निरूपण नहीं किया है, यद्यपि उसके वर्णन भी इस प्रवृत्ति से अस्पृष्ट नहीं हैं । उनमें भी 'अशारदा' (प्रौढ़ा ) का प्रत्यक्ष तथा कलहान्तरिता, मुग्धा और खण्डिता " का प्रच्छन्न संकेत किया गया है । माघ के वर्णनों में शास्त्रीयता अधिक है, पुण्यकुशल के वर्णन स्वाभाविकता एवं सरलता के कारण उल्लेखनीय हैं । परन्तु वह माघ के इन विलासिता के वर्णनों से इतना अभिभूत है कि उसने मात्र के अनेक भावों को यथावत् ग्रहण किया है ।" राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए जाने वाले यदुओं की यह विलासिता माघकाव्य के वीररसप्रधान इतिवृत्त में ही पूर्णतया नहीं रम सकी है, फिर संयमधन साधु द्वारा ठेठ कामुकता का चित्रण, उस कथानक में, जिसकी परिणति भोगत्याग में होती है, कहाँ तक उचित है, यह प्रश्न उपस्थित होने पर, कहना होगा कि पुण्यकुशल ने, इस प्रसंग में, माघ का आवश्यकता से अधिक अनुकरण किया है । १७. स्वीयमंसमधिरोपिता नायिता चित्तकामममुना ह्यशारदा । भ. बा. महाकाव्य, ७.२१ तथा ७.३७, ४१-४२. १८. कलहान्तरिता -- ७.५६, खण्डिता, ८.३७-३८, आदि । १६. तुलना कीजिए - उपरिजतरुजानि याचमानां कुशलतया परिरम्भलोलुपोऽन्यः । प्रथितपृथु पयोधरां गृहाण त्वमिति मुग्धवधूमुदास दोर्भ्याम् ॥ शिशुपालवध, ७.४६ काचिदुन्नतमुखी प्रतिद्रुमं हस्तदुर्लभतमप्रसूनकम् । स्वयमंसमधिरोप्य नायिता चित्तकामममुना ह्यशारदा ॥ भ. बा. महाकाव्य, ७.२१ तथा शिशुपालवध, ७.४७, भ. बा. महाकाव्य, ७.४१-४२; शिशु, ७.४५, भ. बा. महाकाव्य, ७.३६; शिशु. ७.५२, म.बा. ७. ३१. आदि ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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